कविता

न कहना कितना जरूरी

अनकहे लम्हों को जो समझ न पाए,
उसे कैसे न कहूं कि ये नहीं समझ पाए।
अरमानों की मुठ्ठी बन्द पड़ी थी कब से,
जो पहेली बनकर  कब से  है उलझाए।।
न कहनी थी जो बात वही मुख पर आए,
वो राज अब तक छुपा है जो न कह पाए।
मुंह फेरकर वो बैठे थे हमसे वर्षों से,
मन लगी गांठ कौन था जो इसे सुलझाए।।
न कहना कितना जरूरी किसे बताए,
न उम्र समझ सकी ऐसे लम्हें बिताए।
हृदय की रेखाओं में घाव गहरे कब से,
अब तक न ही कोई इस “न” को भेद पाए।।
— सन्तोषी किमोठी वशिष्ठ 

सन्तोषी किमोठी वशिष्ठ

स्नातकोत्तर (हिन्दी)