कविता

प्रेम की निशानी –

कब कहा हमने तुमसे की
दिखा दो  हमें ताजमहल|
लाखों में आते हैं यात्री है
वह दर्शनीय स्थल|
पर वो तो है एक ताबूत
फिर भला क्यों कर कहे
दिखा दो हमें तुम ताजमहल?

हौले से कभी आकर जो
लगा देते हो जो गजरा,
नजर ना लगे तुम्हें कहीं,
मेरी ही आंखों से निकाल
लगा देते हो जो कजरा,
छू लेते हो इन हरकतों से
अक्सर मेरा हृदय तल,
फिर भला हम क्यों कहे
दिखा  दो मुझे ताजमहल?

झुमके जो तुमने मुझे थी दिलाई
उसके परिधि में सारी दुनिया है समाई,
देखते हो जब तुम हमे  अपलक
भावनाएं सारी जाती है छलक,
इसकी भला कौन करे तुरपाई,
जहां प्यार आँखों से छलकता छल छल
कैसे कहे हमें दिखा दो ताजमहल?

कैसे हो सकती है वह प्रेम की निशानी?
बनी  जिनके लिए उन्होंने ही ना जानी|
सुनायी पड़ती हमे उसमें उन कारीगरों
की चीखे कराहें और रोती बिलखती आहें,
जिन्हें अपने बाजुएं पड़ी थी गंवानी|
तो बताओ भला क्यों कहे हम दिखा दो
कराहों से भरी ऐसी प्रेम की निशानी?

तुम्हारे गजरे झुमके और पायल
उन्हीं के बस हम हैं कायल|
जिनके नाम से ही पाषाण तैर गये सिंधु पर,
कभी मिले फुरसत तो दिखा दो
वो सिंधु में तैरते हुए पाषाण के सेतू,
जिसे प्रभु श्री राम ने वैदेही के लिए थी बनाई,
पा लेंगे हम अपने जीवन की सारी की सारी कमाई|

इससे बढ़कर क्या हो सकती कोई प्रेम की निशानी|

जय श्री राम

— सविता सिंह मीरा 

सविता सिंह 'मीरा'

जन्म तिथि -23 सितंबर शिक्षा- स्नातकोत्तर साहित्यिक गतिविधियां - विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित व्यवसाय - निजी संस्थान में कार्यरत झारखंड जमशेदपुर संपर्क संख्या - 9430776517 ई - मेल - [email protected]