मोह
जीवन अर्थात् प्राण सभी जीवों को प्रिय होता है । भले ही यह जीवन रुदन से शुरू होकर रुदन पर समाप्त होता है । वहीं जीवन में कई बार ऐसे प्रसंग भी आ जाते हैं कि पुनः -पुन: रुदन का सामना करना ही पड़ता है । परंतु रुदन बुरा नहीं है, यह भी जीवन का एक अभिन्न हिस्सा ही है । जैसे – हंसना, गाना, सोना, खाना आदि क्रियाएं हैं ।
जीवन से कोई मुक्त नहीं होना चाहता, चाहे कितनी भी विपरीत परिस्थितियां आ जायें । हां कभी- कभी अपवाद स्वरूप कुछ अत्याधिक कमजोर जीव जीवन से हार मानलेते हैं । संसार का हर जीव जीवन से प्रेम करता है । वह स्वयं के जीवन को बचाने के लिए हमेशा संघर्षरत रहता है । वह अनंत काल तक जीना चाहता है, परंतु यह संभव नहीं है । प्रकृति द्वारा प्रदान एक निश्चित आयु तक ही प्राणी जीवन जीता है और फिर स्वत: ही मृत्यु को प्राप्त होता है ।
शरीर का अत्यंत लाचार, कमजोर, दयनीय स्थिति में पहुंचने पर प्राणी इससे मुक्त नहीं होना चाहता । यह जीवन से मोह ही है । वह जीना चाहता है चिरकाल तक, फिर चाहे घुट -घुटकर ही क्यों न जीना पड़े । उसका मोह संसार से खत्म ही नहीं होता । जीवन की तमाम विद्रूपताओं, संघर्षों को दरकिनार करके कहता फिरता है कि ‘अभी यह कार्य अधूरा है, अभी वह कार्य अधूरा है, बच्चे छोटे हैं, पढ़ाना -लिखाना है, शादी -विवाह करना है, घर -द्वार बनाना है, न जाने क्या-क्या ?’
सारी उम्र बीत गई, परंतु सबसे कहता है- अभी मेरी उम्र ही क्या है । यही संसार से मोह है । और इसी मोह के चक्कर में मनुष्य जीवनभर पापकर्म करने से भी नहीं चूकता । वह ईश्वर के बनाये विधान को ही भूल जाता है । मोहवश अपना-अपना करते इस संसार से कूच कर जाता है । यही जीवन का दु:खद अंत है । इसे अध्यात्म की राह पर चलकर सुधारा जा सकता है ।
— मुकेश कुमार ऋषि वर्मा