दिन भर की भाग दौड़ करके भी मेहनत उस के पल्ले नहीं पड़ रही थी। अपनी डिग्रियां सम्भाल कर कितने दिन रखना पड़ेगा उन पर भी राजू के चेहरे की तरह सिलवटें आनें लग पड़ी थी। राजू मन ही मन खीज लिए सोचे जा रहा था।अचानक उस की नज़र सामने आ रहे पंडित जी पर पड़ी। बड़ी उत्सुकता से पास जा कर बोला — “पंडित जी राम राम – आज बड़ी उम्मीद ले कर आप के पास आया हूँ – मेरा हाथ देखकर तो बताओ मुझे नौकरी कब तक मिलेगी।”
पंडित जी ने राजू का हाथ पकड़ा फिर हाथ की लकीरें देखकर बोला–“बेटा तेरे दिन फिरने वाले हैं। इस साल तेरी नौकरी के योग बन रहे हैं। पक्का नौकरी मिलेगी।
पंडित जी तो चले गये राजू हाथ की लकीरें देखता रहा।
बहुत दिनों के बाद पंडित जी एक दुकान पर गये तो राजू ने पंडित जी को पहचान लिया, भाग कर पंडित जी के पास आया, हाथ जोड़ कर बोला – “पंडित जी मेरा हाथ तो देखना मुझे नौकरी कब मिलेगी।”
पंडित जी पहचान गये बोले–“बेटा क्या तुझे आज तक नौकरी नहीं मिली तेरे तो नोकरी के योग थे।”
राजू पंडित की तरफ विस्मय भरी नजरों से देखने लगा तो पंडित ने फिर पूछा – -” यहाँ क्या कर रहे हो? “
राजू बोला – “यहीं लाला की दुकान पर पल्लेदारी का काम करता हूँ बोरियां ढोता हूँ। “
पंडित जी इतना सुन कर यही कह पाए – चलो बेटा यह भी नौकरी है”। और चुपचाप चल दिये।
राजू अपने हाथ की लकीरें हर रोज देखता शायद उस की किस्मत में नौकरी वाली लकीर ही नहीं बनी थी।
लाला ने आवाज लगाई तो राजू फिर से अपने काम में व्यस्त हो गया। शायद किस्मत को यही मंजूर था।
— शिव सन्याल