कविता

रंगों की खेती

घास पानी जंगल देख मेरे
रोंगटे खड़े हो जाते हैं
मुस्कुराते हैं ,मुझे
दुलारते हैं ;
मैं बढ़ जाता हूं आगे
एकांत के ठीकरे बटोरने
जिससे चमकाता हूं रोज
गम के पैबंद घिस-घिस कर,
काले रंगों की सियाही
बदल जाती है,
कुछ चितकबरी सी, मानो
आकृति में कैद रंगों की रोशनी छा गई हो;
पेड़ों के पीछे झुरमुट से
एक रंग से दूसरे रंगों में बदलती सप्तरंगी तक,
रंगो का भीतरी दृश्य कभी भी,
दिखा नहीं, प्रकृति के आंचल में
जहां रंगों की छटा नहीं
छटपटाती परियों सा,
सनसनाती हवाओं का संगीत ,
सरगम सुना रहा हो;
एकांत दर्पण में ,देख अपना ही
अक्स भाग खड़ा होता हूं,
रेत के दानों में रौंदता अपना अक्स ,
क्या बचा पीछे
सोचता ही रहा ,क्योंकी
परियों के हाथ रंगों की खेती नहीं होती ;
हिना की सुगंध धरे बिखरा देती हैं,
प्यार का झीना पर्दा
जिसके पीछे
त्याग, समर्पण की बहती थी बयार ,
अब जंगल आ चुके हैं
मेरे घर तक, मेरे सामने
खंडहर की तरह
मेरा ‘एकांत’ उजाडते।

— नरेंद्र परिहार ‘एकांत’

नरेन्द्र परिहार

सम्पादक दिवान मेरा , द्वमासिक हिंदि पत्रिका पता- , सी 004/104 , उतकर्ष अनुराधा सिविल लाईंस , नागपुर -440001 व्हा. न. 09561775384