नीयत साफ तो नियति हर पल साथ
सारी उपासनाओं, साधनाओं और कर्मयोग का यही सार है कि जिसकी नीयत साफ है, भगवान उसी के साथ है। फिर जिसके साथ भगवान है उसे नियति भी हरसंभव सहयोग देती ही देती है। मनुष्य के जीवन में सफलता पाने के लिए मन का साफ होना पहली और अंतिम अनिवार्य शर्त है।
जो भी भजन-पूजन और आराधना की जाती है वह सबसे पहला काम करती है मन की मलीनता और सड़ांध दूर करने का। चित्त की वृत्तियों में मलीनता का साया होने पर जीवन में सफलता की कल्पना करना निरर्थक है।
मन मन्दिर में गंदगी होने पर जीवन में सुगंध आने की परिकल्पना कभी पूर्ण नहीं हो सकती। आदमी बाहर से कितना ही सुन्दर क्यों न दिखे, भीतर यदि मलीनता है तो उसके बाह्य सौन्दर्य का कोई मूल्य नहीं, केवल पैकिंग भर सुन्दर और आकर्षक दिखती है, भीतर सब कुछ बदरंग। कलियुग के प्रभाव से आज चारों तरफ ऐसे अनचाहे लोग बहुतायत में पैदा हो गए हैं जिनकी वृत्तियां पिशाचों जैसी हैं और हर कर्म में स्वार्थ और लोभ-लालच की दुर्गन्ध आती है।
ऐसे लोग सड़कों चौराहों, आफिसों, प्रतिष्ठानों व दुकानों से लेकर समाज सेवा के तमाम गलियारों में घूमते नज़र आते हैं। इनका हर क्षण एकमेव मकसद रहता है अपना उल्लू सीधा करना, भले ही इस प्रयास में दूसरे को कितनी ही बड़ी हानि क्यों न हो जाए। स्वार्थ केन्द्रित युग में इस प्रकार की पशुता के साथ जी रहे लोगों से मानवता और संवेदनशीलता की कहीं कोई उम्मीद नहीं की जा सकती।
जरूरी नहीं कि इस प्रकार की पशुता बड़े लोगों में ही हो। बल्कि आजकल अनपढ़ आदमी जितना सच्चा और भोला-भाला है, उसके मुकाबले पढ़ा-लिखा आदमी ज्यादा स्वार्थी और भ्रष्ट है क्योंकि अपनी विकास यात्रा के आरंभ से ही वह भ्रष्टाचार के कई-कई सोपानों और शोर्ट कट्स से होकर गुजरता है।
फिर आजकल की पढ़ाई भी ज्ञानार्जन की बजाय पैसा कमाने की मशीन तैयार करने वाली हो चली है जहां शिक्षा तो है,दीक्षा है। पढ़ाई तो है, गुणाई का दूर-दूर तक कोई नामों निशान नहीं है।
धन लिप्सा की आंधी में घिरी शिक्षा पाने के बाद आदमी को न पड़ोस दिखता है न मोहल्ले के लोग और न ही समाज या राष्ट्र। उसका एकमेव उद्देश्य रहता है धन कमाना। चाहे जिस तरह भी हो सके, संग्रह पर संग्रह।
नीयत में खराबी और खोट वाले ऐसे लोग चाहे कितनी दौलत जमा कर लें, कितने ही हथकण्डे क्यों न अपना लें, इनके चेहरे पर सहज सर्वदा मुस्कान कभी ठहर ही नहीं पाती बल्कि इनका मन-मस्तिष्क श्वान की तरह झपटने का आदी हो जाता है और ऐसे में आत्मिक शांति और संतोष की बजाय आदमी के हृदयाकाश में न प्रसन्नता होती है न ईश्वर के अंश का अनुभव।
ऐसा आदमी संवेदनहीन होने के साथ ही पैशाचिक मार्गों का अनुसरण करने लगता है। अपने आस-पास हम कई तथाकथित बड़े लोगों की भीड़ देखते हैं लेकिन इस भीड़ में सदैव मुस्कराने वाले चेहरे ढूंढ़े नहीं मिलते। जो दिखते हैं उनमें अधिकांश मायूस और मुर्दाल ही। और इन्हें देखकर लगता है कि जैसे किसी बहुत बड़े असाध्य रोग, चिन्ता या शोक में डूबे हुए हों।
इन सारे लोगों का अध्ययन किया जाए तो पता चलेगा कि मानवीय मूल्यों के दूसरे तट पर खड़े इन लोगों की नीयत साफ नहीं है। और जिसकी नीयत साफ नहीं है उससे प्रसन्नता की कल्पना कैसे की जा सकती है।
खराब नीयत के चलते ऐसे लोगों के पास धन-सम्पदा तो हो सकती है जिसे वे भ्रम के मारे लक्ष्मी समझते हैं। लेकिन वास्तव में यह लक्ष्मी न होकर खोटी नीयत से कमाई गई अलक्ष्मी है। अलक्ष्मी के व्यापक भण्डार के बावजूद इनमें प्रसन्नता लेश मात्र की भी नहीं देखी जाती।
इसका कारण यह है कि इनका मन-मस्तिष्क खोटी नीयत के विचारों में ही बार-बार नहाता रहता है और ऐसे में ईश्वर इनसे दूर भागता है। जहां ईश्वर नहीं है वहां प्रसन्नता नहीं रह सकती, जहां प्रसन्नता है वहां से ईश्वर दूर नहीं जा सकता।
खोटी नीयत वाले लोगों की कुटिलता उनके चेहरों पर साफ झलकने लगती है। इनकी पूरी जिन्दगी एक-दूसरे को नीचा दिखाने, कुत्सित षड्यंत्र करने और दूसरों को किसी न किसी प्रकार नुकसान पहुंचाने में व्यतीत होती रहती है।
इस पाप कर्म की वजह से जीवन के अंतिम क्षणों में उन्हें अपने जीवन की विफलता और निस्सारता का पता चलता है लेकिन तब तक देर हो चुकी होती है और वे स्वयं को धिक्कारते हुए नरक की यात्रा के लिए तैयार हो जाते हैं। अपने आस-पास बहुसंख्य लोग ऐसे ही हैं जिनकी नीयत कभी साफ नहीं देखी गई।
इनका हर दिन किसी नये शगूफे और षड़यंत्र के साथ शुरू होता है और नींद में भी षड़यंत्रों के स्वप्नों को आकार देते रहते हैं। ये ऐसे लोगों की भीड़ है जिन्हें परमात्मा गलती से या अनजानेपन में मनुष्य का कंकाली ढाँचा दे चुका होता है।
समाज के इन गिद्धों की वजह से सामाजिक और वैचारिक प्रदूषण का खतरा हाल के वर्षों में ज्यादा बढ़ गया है। इस भीड़ का कोई भी आदमी ऐसा नहीं होता जिसने समाज के लिए जीवन जिया हो, कोई परोपकार किया हो, किसी को सम्मान दिया हो या किसी की सेवा-सहायता की हो।
यही वजह है कि नियति भी इनका साथ नहीं देती। नियति उन्हीं का साथ देती है जो ईमानदारी के साथ सेवाव्रत को अपनाते हुए निष्काम जीवन जीते हैं। हो। जहां नीयत में किसी भी तरह की खोट आती है नियति अवश्यमेव चोट पहुंचाती है।
इसलिए अच्छे मनुष्य के रूप में जीवनयात्रा को सफल बनाने के लिए जरूरी है कि हम सभी लोग सेवाव्रत को अपनाएं और यह प्रयास करें कि आम लोगों के मन में हमारे प्रति अच्छी छवि हो।