गाँवों का कायाकल्प
“बेटा सोमू! तुमने अपनी पढ़ाई पूरी कर ली, रिजल्ट भी आ गया।अब तुम ज़ल्दी से कोई काम करने लग जाओ, तो मैं यह खेत साहूकार को सौंपकर तुम्हारे पास शहर आ जाऊँगा। ” गाँव में रह रहे दीनू काका ने शहर में पढ़ रहे अपने बेटे को फोन पर कहा।
“दद्दा!अब आप शांत रहो,और देखते जाओ कि मैं क्या करता हूँ।” कहकर सोमू ने फोन काट दिया।
कुछ दिन बाद ही शहर से अपना बोरिया-बिस्तर समेटकर सोमू जब गाँव लौटा,तो उसके पिता उसे लौटा देखकर अचरज में पड़ गए, और उसका मुँह ताकने लगे, तो उनकी इस दशा को देखकर सोमू बोला- “दद्दा! मैं शहर में नौकरी नहीं करूँगा,बल्कि यहीं गाँव में रहकर अपनी पुस्तैनी खेती के काम को करूँगा,और वह भी आधुनिक तरीक़ों से। “
“मतलब? “
“मतलब यह कि मैंने बी.एस-सी.-कृषिविज्ञान.की पढ़ाई कोई नौकरी करने को नहीं की है, बल्कि अपनी ख़ानदानी खेती को सँवारने के लिए। “
“पर यह खेत तो तुम्हारी पढ़ाई के समय साहूकार को गिरवी रखा जा चुका है। “
“मैं बैंक से लोन लेकर आधुनिक मशीनों से नये तरीकों से कुछ तरह से खेती करूँगा कि साहूकार का सारा कर्ज़ चुक जाएगा,और हमारी हालत भी सुधर जाएगी।जिस गाँव में मैंने जन्म लिया,जहाँ की हवा, भोजन, पानी ने मुझे पाला-पोसा है, पढ़-लिखकर क्या मैं उसे छोड़ देने का ही निदनीय कृत्य करूँ? नहीं कभी नहीं। “
“अच्छा! ठीक है बेटा! “
“हाँ! और मैं ऐसा ही करने के लिए शहर में पढ़ रहे इस गाँव के अन्य नौजवानों को भी कहूँगा।और जब सब मुझ जैसा ही करेंगे, तो देखते ही देखते इस गाँव,और फिर इस इलाके का नक्शा ही बदल जाएगा। दरअसल अब मुझ जैसे पढ़े-लिखे नौजवानों को गाँवों का कायाकल्प करना है। “
“अच्छा! तुम जो ठीक समझो करो, बेटे! “
“दद्दा! हमें आज गाँवों को सँवारने की ज़रूरत है,जो कि,धीरे-धीरे उजड़ रहे हैं।
— प्रो. (डॉ) शरद नारायण खरे