सेंसर बोर्ड एक कठपुतली
ओ माई गॉड, पी के, आदिपुरुष के बाद अब ओ माई गॉड-2 आने वाली है। कुछ लोग मनोरंजन करेंगे, कुछ लोग विरोध करेंगे और कुछ लोग पाँचों ज्ञानेंद्रियों और कर्मेंद्रियों से परे अनासक्त भाव से दीन-दुनिया से बेखबर होकर साँसें लेते रहेंगे। आज की फिल्में सिगरेट के नुकसान दायक विज्ञापन और शराब की हिदायतों की तरह है। गलत आता रहेगा, विरोध होता रहेगा, कमाई होती रहेगी, गलत आता रहेगा…….।
इसमे सेंसर बोर्ड नामक एक
संस्था जो कठपुलती की भूमिका में होती है या परोक्ष रूप से फिल्म कम्पनी की साझेदार रहती है, कैंची लेकर काँट छाँट का दावा करती है। हाँलाकि वह कहाँ काटती है और कैसे काटती है, पता नहीं क्योंकि उसके पुरजोर दावे के बाद भी आपत्ति जनक सीन खूब फलते फूलते हैं। उस संस्था से पवित्र होकर वह सब समाज में आ जाता है जो नवागत पीढ़ी को गुमराह कर सकता है।
कल, आज और कल नामक क्रमागत तीन पीढ़ियों को एक साथ बैठकर देखने लायक नहीं छोड़ता है। सामाजिक और पारिवारिक संबंधों को “कोठा-कल्चर” से आगे बढ़कर सोचने नहीं देता। नाजायज रिश्तों के लिए न केवल उकसाता है बल्कि जायज भी साबित करने लगता है।
सेंसर बोर्ड के लिए धरातल पर कोई मानक है भी या स्वविवेक ही है, पता नहीं। अब जरूरी है कि सेंसर बोर्ड को विशुद्ध और शक्तिशाली बनाया जाए। मनोरंजन को मानिक विकृति से पृथक किया जाए। आपत्ति और अनापत्ति की विस्तृत व्याख्या हो। गलत सीन या संवाद पास होने पर सेंसर बोर्ड पर कठोर दंडात्मक कार्यवाही हो। मनोरंजन के नाम पर फिल्मी ठेकेदार आस्था से खेल रहे हैं और सेंसर बोर्ड भी मलाई खा खाकर मजे ले रहा है। आम जन रुपहले पर्दे को ही सच्चा इतिहास और धर्मशास्त्र मानकर विकृत निष्कर्ष निकाल रहा है, भविष्य के लिए साक्ष्य सम्मत दस्तावेज मान रहा
है….। यह पद्धति अब रुकनी चाहिए। रुक ही जानी चाहिए वरना बहुत देर हो जाएगी।
— डॉ अवधेश कुमार अवध