किनारा
यूँ जी रहा , लाख टूट टूट के बिखरा हूँ मैं।
मेरा जीवन कुन्दन , जल के निखरा हूँ मैं।
हर कदम पे साहस ने थामा है मन को,
एक नया संदेश पाया, जब भी गिरा हूँ मैं।
उम्र भर बगिया से मै फूल चुनता रहा,
इन काँटों के पास भी दो पल ठहरा हूँ मैं।
मुझे मत समझो। तुम भी,कागज का फूल ,
ठुकरा के पछताओगे, सिक्का खरा हूँ मैं।
सीपीयाँ खोजने वालों, मोती की क्या पहचान,
पहाड़ी नदी नही, सागर सा गहरा हूँ मैं।
अपने लिए जीना, जीवन की रीत नही है,
जहाँ मिले दर्द पराये, वही से गुजरा हूँ मैं।
मुझे अपना लो, शायद तुम्हारे काम आउँ,
जग को शीतल छावं दूँगा, पौधा हरा हूँ मैं।
मन बेकल रहा, मगर होश खोया नही,
न दुख से घबराया, न पीडा से डरा हूँ मैं।
मुझ को दुख न हो, ऐसी तो कोई बात नही,
छुपे चाँद सा, दुख के सागर से उभरा हूँ मैं।
रूप को चाहने वालो, मन को भी पहचानो,
न मन का मैला हूँ, न नकली चेहरा हूँ मैं।
यूँ बाशिंदा हूँ मैं सागर के इन किनारों का,
मगर ” सागर” कब तूफानों से डरा हूँ मैं।
— ओमप्रकाश बिन्जवे ” राजसागर”