फितरत
बेमानी है रिश्ते सभी
अहंकार में रची-बसी
स्वार्थ की बगिया है हरी भरी
प्रेम की निशा कहीं नहीं !
कहने को अपने सभी
लेकिन अपनापन कहीं नहीं !
हैसियत पैसों से तौली
जाती है रिश्ते सभी
प्यार वफा की कोई बात नहीं !
झूठी तारीफ पर मरते हैं सभी
सच्ची बात नहीं लगती भली !
सिक्कों की चकाचौंध में
सच्चे रिश्ते दिखते कहीं नहीं !
अपने पराए की जमघट में
है अपना कोई नहीं !
चाहे कर लें कितने यकीं
हम इंसानों की फितरत बदलतीं नहीं!
— विभा कुमारी “नीरजा”