पीड़ा का मोल
जब आँसू ही सूख गये अपनी पलकों में,
तब पीड़ा का मोल भला क्या हो पायेगा?
जब कलियों को लूट लिया बागी उपवन ने,
तब सुमनों का दर्द कौन फिर सुन पायेगा?
तट पर सिर धुनती हो जब हर इक धारा,
कैसे किश्ती कूल छोड़ मँझधार में जाये
लगा हुआ हो जब पहरा मद्धिम झोकों पर,
कैसे पवन सुहाना मंगल गान सुनाये
दर्पण को जब नज़र लग गई हो अपनी ही,
निरख रूप सिंगार क्या उसमें कर पायेगा,
जब आँसू ही सूख गये अपनी पलकों में,
तब पीड़ा का मोल भला क्या हो पायेगा? 1।
बाती को था नाज़ बहुत छत – दीवारों पर,
पर आँधी ने खेल ख़त्म कर डाला सारा
गिद्धों की टोली थी बैठी आँख गड़ाये,
रही सिसकती बेबस कोयल सब कुछ हारा
किरणें गर बागी हो तम संग मिल जाये तो
क्या सूरज फिर नीलगगन से कर पायेगा
जब आँसू ही सूख गये अपनी पलकों में,
तब पीड़ा का मोल भला क्या हो पायेगा? 2।
हो द्वापर – कलयुग या कोई बात पुरानी,
सदा चीखती रही नार धनिया या रानी
चाहे बाजी लगे महल या चौराहो पर
खिंचता रहा चीर उतरता रहा है पानी,
जब हारे हर दाँव युधिष्ठिर भीष्म मौन हो
तब आँखों को मीच के अंधा मुसकायेगा
जब आँसू ही सूख गये अपनी पलकों में,
तब पीड़ा का मोल भला क्या हो पायेगा? 3।
— शरद सुनेरी