वारदात
रात का समय था, घुप अंधेरा ।उस रास्ते से गुजरते हुए डर सा लग रहा था ।वैसे तो पास में दौलत का कोई खजाना तो नहीं था, पर घर के लिए एक बकरी खरीद कर मैं ले जा रहा था ।5 किलोमीटर के इस रास्ते में चलते चलते अंधेरा हो गया था ।एक सुनसान जगह पर कुछ आवाजें आ रही थी ।मैंने अपनी पेंसिल टॉर्च से बस उधर देखा तभी दो-तीन लोग मेरी तरफ आ गए, और आते ही बोले-” क्या पुलिस को बताएगा।”
मैंने कहा -‘नहीं भाई मैं तो यहां से यह बकरी ले जाकर घरवालों को दूंगा’।
बस झट से उन्होंने चाकू निकाला और कहा-” जितना माल है, निकाल ।”
मैंने दिखा दिया सिर्फ ₹5 जेब में बचे थे। जो सौदा करते वक्त दया कर बेचने वाले ने छोड़ दिए थे। उससे मैं कोई वाहन भी किराए पर ले नहीं सकता था और उस रास्ते पर वाहन भी कम चलते थे कहीं ना कहीं मुझे डेढ़ किलोमीटर और डेढ़ किलोमीटर घर की तरफ पैदल ही चलना था।
मेरी तो सिट्टी पिट्टी गुम हो गई और मैं बोला-‘ सब कुछ बकरी खरीदने में चला गया’।
फिर वहां से कोयी बोला,-” चलिए ,बकरी ही दे दे वरना सोच ले।”
मैंने बकरी उनको पकड़ाई, सोचा चलो भागते भूत को लंगोटी ही सही, जान तो बची और घर की तरफ चलने लगा । तभी एक की आवाज आई,” ले जा यार, अपनी बकरी बस पुलिस वाले को कुछ मत बताना। हमें लगा तू पुलिस का मुखबिर है। इसलिए रोका था ।”
मैं खामोशी से बकरी पकड़े घर की तरफ निकल पड़ा।
— नरेंद्र सिंह परिहार