स्वास्थ्य

चिकित्सा पद्धतियों की तुलना का मापदण्ड क्या हो?

आरोग्य एवं निरोगता में अन्तर
नीरोग का मतलब शरीर में रोग उत्पन्न ही न हों, जबकि आरोग्य का मतलब शरीर में रोगों की उपस्थिति होते हुए भी हमें उनकी पीड़ा और दुष्प्रभावों का अनुभव न हो। आज हमारा सारा प्रयास, प्रायः आरोग्य रहने तक ही सीमित होता है। आज हम मात्र शारीरिक रोगों को ही रोग मान रहे हैं। आत्मिक रोग, शारीरिक और मानसिक रोगों से ज्यादा खतरनाक होते हैं, जो हमें जन्म-मरण एवं विभिन्न योनियों में भटकाते हैं। शारीरिक रूप से भी नीरोग बनना प्रायः असम्भव लगता है। रोग चाहे शारीरिक हो, चाहे मानसिक अथवा आत्मिक, उसका प्रभाव तो शरीर पर ही होगा। अभिव्यक्तितो शरीर के माध्यम से ही होगी, क्योंकि आत्मा तो अरूपी है और मन को भी हम अपने चर्म चक्षुओं द्वारा देखने में असमर्थ हैं। मुख्य रूप से रोग आधि (मानसिक), व्याधि (शारीरिक), उपाधि (कर्म-जन्य) के रूप में ही प्रकट होते हैं। अतः आधि, व्याधि और उपाधि का शमन करने से ही समाधि, स्वस्थता एवं परमशान्ति अर्थात् नीरोग अवस्था की प्राप्ति हो सकती है।
रोग हमारा मित्र है शत्रु नहीं
अधिकांश रोगों का कारण हम स्वयं ही होते हैं। रोग के सम्बन्ध में हमारी गलत धारणाएँ हैं। दर्द अथवा रोग के अन्य लक्षण हमें सजग करते हैं। अपने कर्त्तव्य बोध हेतु चिन्तन करने की प्रेरणा देते हैं। हमें चेतावनी देते हैं, कि हम अपने आपका निरीक्षण कर, अपने आपको बदलें ताकि पीड़ा मुक्त, तनाव मुक्तजीवन जी सकें। हम स्पप्न में जी रहे हैं यानी बेहोशी में हैं। दर्द अथवा रोग के अन्य संकेत उस बेहोशी को भंग कर हमें सावधान करते हैं परन्तु सही दृष्टि न होने से हमने, उनको शत्रु मान लिया है। रोगी शरीर की आवाज सुनना और भाषा को समझना नहीं चाहता। उपचार स्वयं के पास है और खोजता है बाजार में, डॉक्टर और दवाइयों के द्वारा। फलतः दवा द्वारा रोग के कारणों को दबा कर खुश होने का असफल प्रयास करता है। रोगी जितना डॉक्टर, दवा अथवा अन्य शुभचिन्तकों, अधूरे ज्ञान वाले सलाहकारों पर विश्वास करता है, उतना अपने आप पर एवं अपनी क्षमताओं पर विश्वास नहीं करता। यही तो सबसे बड़ा मिथ्यात्व (गलत मान्यता) है। जब रोग का कारण स्वयं है तो उपचार भी स्वयं के पास अवश्य होना चाहिए। शरीर की स्वचलित प्रणाली आँतें, गुर्दे, फेंफड़े और त्वचा शरीर के किसी भी भाग में एकत्र हुए अनुपयोगी, विजातीय अथवा अवांछित तत्त्वों को किसी न किसी प्रकार का सफाई अभियान चलाकर, उसे जुखाम, बुखार, फोड़े-फुन्सी, मल-मूत्र अथवा पसीने आदि के रूप में शरीर से बाहर फेंक कर शरीर की विभिन्न कार्य प्रणालियों के कार्य को सामान्य रूप में लाने का प्रयास करती है। प्रकृति रोग के द्वारा यह दर्शाती है कि हम गलती कर रहे हैं। प्रारम्भिक अवस्था में प्रकट होने वाले रोग के लक्षण हमारे मित्र होते हैं। हमें हमारी असजगता के कारण भविष्य में होने वाले दुश्परिणामों की चेतावनी देकर सचेत करते हैं। यह तो हमारे शारीरिक प्रक्रिया का एक उपकारी एवं हितैषी कार्य है, जिसमें हमें सहयोग करना चाहिए। यह कोई शत्रुता पूर्ण कार्य नहीं जिसे रोका जाए, विरोध किया जाए अथवा जिसे नष्ट किया जाए। परन्तु अज्ञानवश आज हम इन संकेतों को दुश्मन मान दवाइयों द्वारा उनको दबा कर अपने आपको बुद्धिमान समझने की भूल कर रहे हैं। कचरे को दबाकर अथवा छिपाकर रखने से उसमें अधिक सड़ांध, बदबू अथवा अवरोध की समस्या ही पैदा होगी। दीमक लगी लकड़ी पर रंग रोगन करने से बाहरी चमक भले ही आ जावे, परन्तु मजबूती नहीं आ सकती। औषधियों के माध्यम से इस सफाई अभियान को रोकने से तो विषौले अथवा दूषित तत्त्वों के शरीर के अन्दर रुके रहने से धीरे-धीरे शरीर की कार्यप्रणाली में अवरोध बढ़ता जाएगा। जो भविष्य में विभिन्न गम्भीर रोगों को जन्म देने का कारण बनते हैं। अधिकांश मौसमी एवं वायरस रोगों का यही प्रमुख कारण होता है। वे चाहे मलेरिया, चेचक, चिकनगुनिया, डेंगू, प्लेग, इबेलो, एन्थ्रेक्स, कोरोना, स्वाइन फ्लू आदि किसी भी नाम से पुकारे जाते हों। दवाओं द्वारा लक्षणों को दबा देने से एक तरफ तो रोग के कारण बने रहते हैं, दूसरी तरफ दवाएँ प्रायः शरीर की रोग प्रतिकारात्मक क्षमताओं को क्षीण कर देती हैं। परिणामस्वरूप भविष्य में नित्य नवीन रोगों के पनपने की संभावनाएँ बनी रहती है।

क्या उपचार में राहत ही पूर्ण चिकित्सा है?
रोग में राहत का बहुत महत्त्व होता है। राहत का मतलब होता है कि किसी भी विधि द्वारा रोग के प्रभाव को कम करना जिससे दर्द, पीड़ा, बेचैनी कम हो जाए एवं शरीर में सहनीय स्थिति उत्पन्न हो जाए। अर्थात् राहत की प्राथमिकता रोग को दबाने अथवा असक्रिय करने तक सीमित होती है, न कि रोग को जड़ से मिटाने अथवा निष्क्रिय करने की। जैसे अंगारे पर राख आ जाने से उसकी गर्मी का प्रभाव कम हो जाता है। दीमक लगी लकड़ी पर रंग-रोगन करने से उसकी खराबी छिप जाती है। कचरे पर कपड़ा डालने से अस्वच्छता ध्यान में नहीं आती। जबकि अंगारे की गर्मी, लकड़ी में दीमक लगने से आने वाली खराबी एवं कचरे का दुष्प्रभाव बना रहता है। अतः जब तक रोग का कारण बना रहता है, भविष्य में रोग होने की सम्भावनाएँ सदैव बनी रहती है। अच्छे उपचार का मतलब रोग को जड़ से दूर करना। सदैव के लिए उसके कारणों, लक्षणों एवं प्रभाव को निश्क्रिय करना, ताकि भविष्य में उन कारणों से किसी भी रूप में रोग की पुनरावृत्ति न हो। आधुनिक चिकित्सा पद्धति का उद्देष्य एवं प्राथमिकताएँ तात्कालिक परिणामों पर आधारित होने से प्रायः राहत तक ही सीमित होता है। उपचार के कारण भविष्य में पड़ने वाले दवाओं के दुष्प्रभावों की उपेक्षा होती है। संक्रामक और असाध्य रोगों में तो दवा जीवनपर्यन्त आवश्यक बन जाती है।
चिकित्सा हेतु व्यापक दृष्टिकोण आवश्यक
आज लोगों की ऐसी प्रवृत्ति बन गई है कि वे वैज्ञानिक तथ्यों को ही सुनना, समझना और ग्रहण करना पसन्द करते हैं। भले ही वे भौतिक विज्ञान एवं स्वास्थ्य विज्ञान के मूल सिद्धान्तों में अन्तर से अपरिचित ही क्यों न हों? शरीर में रोग के अनुकूल दवा बनाने की क्षमता होती है और यदि उन क्षमताओं को बिना किसी बाह्य दवा और आलम्बन विकसित कर दिया जाता है तो उपचार अधिक प्रभावशाली, स्थायी एवं भविष्य में पड़ने वाले दुष्प्रभावों से रहित होता है। वास्तव में आज स्वास्थ्य विज्ञान भौतिक विज्ञान तक ही सीमित हो रहा है। अपना महत्त्व बताने हेतु भ्रामक विज्ञापनों का उसे सहारा लेना पड़ रहा है। फलतः प्रकृति के सनानत सिद्धान्तों की उपेक्षा विज्ञान की आड़ में हो रही है। बुराई को गलत न मानने वाले बुराई को नहीं छोड़ सकते। ठीक उसी प्रकार आधुनिक चिकित्सा पद्धति के दुष्प्रभावों को समझे बिना न तो उसके प्रति हमारा मोह भंग होता है और न अन्य चिकित्सा पद्धतियों को जानने, समझने और अपनाने के प्रति जनसाधारण का आकर्षण ही सम्भव है। प्रत्येक चमकती वस्तु सोना नहीं होती। ठीक उसी प्रकार आधुनिक चिकित्सा का निदान सदैव सही हो और उपचार भी सभी रोगों में लाभकारी और प्रभावशाली ही हो यह आवश्यक नहीं। आज रोग के लिए डॉक्टर न होकर डॉक्टर के लिए रोग है, समझा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं। जितने व्यक्ति दवाओं के दुष्प्रभाव और गलत निदान द्वारा होने वाले उपचार से पीड़ित हैं अथवा मृत्यु को प्राप्त करते हैं, उतने व्यक्ति अकाल, तूफान, युद्ध, महामारी आदि प्रकृति के अन्य प्रलयों में मिलकर भी नहीं मरते। यह कटुसत्य है तथा चिन्तन और चिन्ता का विषय है।
चिकित्सा पद्धतियों की तुलना का मापदण्ड क्या हो?
वर्तमान में प्रभावशाली स्वावलम्बी चिकित्सा पद्धतियाँ सरकारी उपेक्षा की शिकार हैं। अभी तक सरकार द्वारा न तो उन पर शोध को अपेक्षित प्रोत्साहन दिया जा रहा है और न ही उनके प्रशिक्षण एवं उपचार व्यवस्था की ओर सरकार का विशेश ध्यान ही जा रहा है। भले ही वे चिकित्सा के मापदण्डों में सरकारी मान्यता प्राप्त विकसित और वैज्ञानिक समझी जाने वाली आधुनिक चिकित्सा पद्धति से काफी आगे ही क्यों न हों? जब तक सरकारी सोच में बदलाव नहीं आएगा, रोग के मूल कारणों को जानने व समझने की उपेक्षा होगी, दुश्प्रभावों की अनदेखी होगी, चिन्तन में तथ्यपरक अनेकान्त दृश्टिकोण नहीं आएगा, तब तक सरकार से अच्छे स्वास्थ्य हेतु सहयोग की अपेक्षा करना व्यर्थ होगा। इसी कारण जितने ज्यादा चिकित्सक बढ़ रहे हैं, अस्पताल खुल रहे हैं उससे भी तेज रफ्तार में नए-नए रोग व रोगियों की संख्या में वृद्धि हो रही है, जो कटु सत्य है।
क्या वायरस ही रोग का मुख्य कारण हो सकता है?
आधुनिक चिकित्सा पद्धति रोग का मुख्य कारण शरीर में वायरस अथवा रोग के कीटाणुओं को मानती है। मानव अनन्त शक्तिशाली होता है। उसमें अनन्त क्षमता होती है। क्या लाखों चूहे मिलकर किसी शेर को परेशान कर सकते हैं? हां यदि शेर को अपनी क्षमता का खयाल न हो, वह प्रमादी हो अथवा गहरी निद्रा में सोया हुआ हो, तो निश्चित रूप से उसे परेशानी हो सकती है। अन्यथा चूहे उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकते। ठीक उसी प्रकार यदि हमारी प्रतीकारात्मक शक्ति अच्छी हो तो वायरस और कीटाणु हमारा क्या बिगाड़ सकते हैं? गन्दी बस्तियों में रहने वाले, रोजाना पाखाना और गटर, नालियों की सफाई करने वाले व्यक्ति और प्रतिदिन अस्पताल में असाध्य एवं संक्रामक रोगियों के बीच रह कर सेवायें देने वाले चिकित्सकों और नर्सेज आदि को तो इस मान्यतानुसार सदैव रोग ग्रस्त ही होना चाहिये? परन्तु इसमें कितनी वास्तविकता है, जन साधारण से छिपी नहीं है।
आधुनिक दवाइयाँ कितनी विश्वसनीय?
क्या बाजार में उपलब्ध दवाइयों अथवा इंजेक्शन रोगी विशेश के अनुरूप बनाए जाते हैं? दवा कैसे बनती है? कौन-कौनसे आवश्यक और कम उपयोगी अथवा अनावश्यक तत्त्व कितनी-कितनी मात्रा में होते हैं? इस बात का ज्ञान अथवा जानकारी उपचार करने वाले चिकित्सक को प्रायः नहीं होती है। क्या डॉक्टर दवा से पड़ने वाले दुश्प्रभावों का सही आंकलन कर सकते हैं? क्या दवा में आवश्यकता से विपरीत कम या अधिक तत्त्वों की मात्रा शरीर में असन्तुलन तो पैदा नहीं करेगी? क्या दवाइयों का परीक्षण एक जैसे रोगियों, वातावरण और परिस्थितियों में किया जाता है? दवाइयों के परीक्षण में ऐसा असम्भव ही होता है। जब रोग का कारण रोगी का चिन्तन, मनन,सोच, स्वभाव, तनाव, खान-पान, रहन-सहन, आचार-विचार, जीवनशैली आदि प्रत्येक व्यक्ति के लिए अलग-अलग होती है, तो लक्षणों के आधार पर किया गया निदान, परीक्षण और उपचार कैसे सटीक और वैज्ञानिक हो सकता है? प्रत्येक रोगी के लिए दवा का निर्माण उसके स्वयं की आवश्यकता के अनुसार होना चाहिए। बाजार से उपलब्ध दवा शत-प्रतिशत कैसे सही हो सकती है? ऐसे परिणाम कभी भी एक जैसे नहीं हो सकते। जब तक दवा का निर्माण रोगी की व्यक्तिगत आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं होगा तो उपचार कैसे पूर्ण, प्रभावशाली, स्थायी हो सकता है? मात्र प्रमुख लक्षणों को दबा कर रोग में राहत पाना ही उपचार का ध्येय नहीं होता। इसी कारण अनुभवी वैद्य रोगी के रोग के अनुसार स्वयं दवा तैयार करते हैं। दवाइयों के अनावश्यक सेवन से शरीर की रोग प्रतिरोधक शक्ति क्षीण होने लगती है। अतः ऐसा उपचार प्रायः अधूरा ही होता है।
स्वास्थ्य मंत्रालय से अपेक्षाएँ
स्वास्थ्य मंत्रालय को आधुनिक चिकित्सा पद्धति का अन्धानुकरण करने से पूर्व मौलिक चिकित्सा कौनसी और क्यों?, सही निदान के मापदण्ड क्या?, वैकल्पिक चिकित्सा कौनसी और क्यों?, स्वास्थ्य विज्ञान और भौतिक विज्ञान में अन्तर क्या?, स्वस्थ कौन?, अच्छा स्वास्थ्य कैसा?, रोगी कौन?, रोग क्यों? आदि स्वास्थ्य से जुड़े मूल तथ्यों को परिभाषित करना चाहिये, ताकि अहिंसक चिकित्सा पद्धतियों की उन मापदण्डों के अनुसार तुलना की जा सके। भारत की जनता को रोग मुक्तकरने हेतु उनके पास तत्कालीन और दीर्घकालीन क्या योजनाएं है? स्वास्थ्य के नाम पर अरबों रुपयों को खर्चकर अति आधुनिक अस्पतालों के निर्माण एवं चिकित्सकों की संख्या बढ़ने के बावजूद रोग और रोगियों की संख्या में क्यों वृद्धि हो रही है? क्या कहीं मूल में तो भूल नहीं हो रही है? जिस चिकित्सा पद्धति के दुष्प्रभावों से सारी समस्यायें हो रही है, क्या उन्हीं से उसका समाधान प्राप्त करने की भूल तो नहीं हो रही है? विज्ञापन और शीघ्रता के इस युग में जिस मानसिकता में हम जी रहे हैं, जो चिकित्सा न सहज है, न सरल है, न सस्ती है, न स्वावलम्बी है, न अहिंसक है, न पूर्ण है, न दुष्प्रभावों से रहित है, न स्थायी है, फिर भी आधुनिक चिकित्सा को विकसित, वैज्ञानिक, प्रभावशाली मानना कितनी बुद्धिमत्ता है? स्वास्थ्य प्रेमियों के लिए चिन्तन का प्रश्न है।

— डॉ. चंचलमल चोरडिया

डॉ. चंचलमल चोरडिया

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