गीत
कोई भटक कहीं है गया, जग के जाल में;
कोई अटक चटक है गया, प्रकृति ज्वार में!
कितने हैं भँवर आए गए, भव प्रवाह में;
कितने भभक सिसक हैं गए, भाव भीति में!
कितनी हैं प्रीति पीड़ा दिई, भुवन श्रीति में;
कितने हैं आए और गए, नीति रीति में!
ज्योति जलाए कोई जिगर, आगए इधर;
संदेश दे के चले गए, फिर थे वे उधर!
जो जान लिए जी थे गए, जागरण शिविर;
‘मधु’ श्याम विविर झाँके रहे, राधा रमण में!
— गोपाल बघेल ‘मधु’