संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा के रूप में मिले हिंदी को स्थान
भारतीय संविधान में हिंदी को राजभाषा घोषित किया गया है। वस्तुतः हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है। इसे चाहे सरकारी पद मिले या न मिले, यह हर भारतवासी के हृदय में रची – बसी है। भारत, क्षेत्रफल तथा जनसंख्या की दृष्टि से ही नहीं, भाषाओं की दृष्टि से भी एक उपमहाद्वीप है, यहाँ भाषा और बोलियों की संख्या सैकड़ों में है। बाइस भाषाएं तो इतनी प्रमुख हैं कि भारतीय संविधान में क्षेत्रीय भाषा के रूप में इन्हें स्वीकार किया गया है।
यह विवाद का विषय हो सकता है कि विश्व में हिंदी बोलने वालों की संख्या कितनी है और वह किस स्थान पर है। यदि कोई अँग्रेजी, स्पेनिश या चीनी को सर्वाधिक प्रचलित भाषा बताता है तो यह कथन सत्य कैसे माना जा सकता है। डॉ जयंती प्रसाद नौटियाल के अनुसार हिंदी में यदि उर्दू को भी सम्मिलित कर लिया जाए (क्योंकि उर्दू की उत्पत्ति भारत में हुई) तो हिंदी जानने वालों की संख्या एक अरब से अधिक है। यह संख्या चीनी भाषा से 12. 5 करोड़ अधिक है। इस प्रकार हिंदी विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। इस दृष्टि से हिंदी की प्रासंगिकता संयुक्त राष्ट्र में मान्यताप्राप्त छह भाषाओं (अँग्रेजी, रूसी, फ्रेंच, चीनी, स्पेनिश और अरबी) से किसी स्तर से कम नहीं है। इन छह भाषाओं को संयुक्त राष्ट्र द्वारा मान्यता प्रदान की जा चुकी है।अस्तु, संख्या बल से हिंदी भी संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनने के लिए सर्वथा सक्षम और समर्थ है।
संयुक्त राष्ट्र में महाशक्तियों की भाषाओं को मान्यता प्राप्त है। स्पेनिश और अरबी बोलने वाला कोई देश महाशक्ति नहीं है परंतु इन भाषाओं को बोलने वाले देशों की संख्या बहुत बड़ी है और उन देशों में आज भी विश्व राजनीति का मुख्य संचालक पेट्रोल मिलता है। आज हिंदी के पास प्रबल तर्क है कि भारत विश्व में एक महाशक्ति के रूप में तेजी से उभर रहा है, हिंदी 22 देशों में लगभग 100 करोड़ से अधिक लोग बोलते हैं, अतः जनतंत्र की दृष्टि से हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनने में और विलंब नहीं होना चाहिए। भारत अपने बलबूते और शक्ति – सामर्थ्य से महाशक्ति बनने की दिशा में प्रयासरत है, हिंदी को विश्व भाषा बनाने का प्रयास अवश्य सफल होगा।
संयुक्त राष्ट्र को हमें ‘जादू की छड़ी’ समझने की भूल कदापि नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उसकी स्थिति और चरित्र में निष्पक्षता का अभाव दिख रहा है। वह अपनी विश्वसनीयता और अस्तित्व की रक्षा के लिए स्वयं जूझ रहा है। पिछले दो दशकों में महाबली अमेरिका नितांत अपने व्यक्तिगत हितों के लिए इस विश्व संस्था का दुरुपयोग करता आ रहा है और उसकी साख रसातल में जा चुकी है। ऐसे में संयुक्त राष्ट्र द्वारा हिंदी के प्रति आँखें मूंदे रहना भारत के प्रति भेदभावपूर्ण रवैये का द्योतक है। यह भेदभाव हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाए जाने के प्रति ही नहीं, अपितु सुरक्षा परिषद की सदस्यता के विंदु पर भी है। अतः भारत से जुड़े अन्य अनेक प्रकरणों में भी संयुक्त राष्ट्र तटस्थ भूमिका निभा पाएगा, इसमें संदेह है, तथापि हमें हिंदी को विश्व भाषा बनाने के लिए प्राण – प्रण से अनवरत उद्योग करते रहने की आवश्यकता है।
संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी को वैधानिक भाषा का दर्जा दिलाने की मांग वर्तमान परिस्थिति में सर्वथा उचित है। विश्व हिंदी सम्मेलन करने के पीछे मुख्य प्रेरणा भी यही थी कि हिंदी को विश्व भाषा के रूप में कैसे स्थापित किया जाए। इसका एकमात्र निदान यही है कि हिंदी को संयुक्त राष्ट्र में यथाशीघ्र स्वीकार्यता प्रदान की जाए। पिछले कई दशकों से लगातार हर विश्व हिंदी सम्मेलन में यह प्रस्ताव स्वीकार किया जाता रहा है।
भारत के कवि हृदय पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने विश्व मंच पर हिंदी का जयघोष करते हुए कहा था –
गूंजी हिंदी विश्व में, स्वप्न हुआ साकार
राष्ट्र संघ के मंच से, हिंदी की जयकार
हिंदी की जयकार, हिंद हिंदी में बोला
देख स्वभाषा प्रेम, विश्व अचरज में डोला
इन पंक्तियों द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच से, हिंदी की जयकार की गई तथा असंख्य हिंदी अनुरागियों की आँखों में झिलमिलाते उस सपने को साकार होते हुए दिखाया गया है, जो उन्होंने हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की सातवीं भाषा बनने के रूप में पाल रखा है। हम स्वप्न देखेंगे, तभी तो वे साकार होंगे। इस पहल को आगे बढ़ाने का श्रेय भारत के वर्तमान यशस्वी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जाता है, जिन्होंने सितंबर 2014 में अपने अमेरिकी दौरे के अंतर्गत न केवल संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में भाषण दिया, अपितु अनेक सभाओं को हिंदी में ही संबोधित किया। सूरीनाम में संपन्न हुए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन में भारत ने जिस दृढ़ता से संयुक्त राष्ट्र की सातवीं भाषा हिंदी को बनाए जाने की वकालत की, इससे हिंदी की स्वीकार्यता और प्रासंगिकता विश्व स्तर पर सिद्ध हुई और हिंदी को अपने लक्ष्य तक पहुँचने की संभावनाएँ बढ़ी थीं। इसी प्रकार सभी विश्व हिंदी सम्मेलनों में, विदेशों में हिंदी शिक्षण समस्याएँ और समाधान, विदेशों में हिंदी साहित्य सर्जन, हिंदी के प्रचार-प्रसार में सूचना प्रौद्योगिकी की भूमिका, वैश्वीकरण, मीडिया और हिंदी, हिंदी के प्रचार – प्रसार में हिंदी फिल्मों की भूमिका, साहित्य में अनुवाद की भूमिका सदृश ज्वलंत विषयों पर विशद संभाषण और चर्चाएँ हुईं हैं। इससे समस्त विश्व का ध्यान हिंदी की ओर आकृष्ट हुआ है और पर्याप्त समर्थन मिला है।
संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी की अनिवार्यता की बात से ही हिंदी प्रेमियों के मन में हर्षानुभूति होने लगती है। हिंदी में वे सारी विशेषताएँ हैं. जो इसको वैश्विक भाषा बनने की सामर्थ्य और क्षमता प्रदान करती हैं। इधर हिंदी ने अपने कलेवर बदले हैं और समय के साथ चलने का कला – कौशल सीख लिया है। वह बाजार की भाषा बन चुकी है, विज्ञान, प्रौद्योगिकी तकनीक और अनुसंधान की भाषा बन चुकी है। साहित्य की शीर्ष भाषा तो वह पहले से थी और आज भी है। अंतर्जाल अर्थात इंटेरनेट से जुड़े उस भ्रम को भी हिंदी तोड़ चुकी है. जिस तकनीक पर केवल अँग्रेजी अपना वर्चस्व समझ रही थी। अपनी संप्रेषणीयता के कारण हिंदी व्यवहार की भाषा बन चुकी है और संपूर्ण विश्व के द्वारा अपनाई जा रही है।
हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनने के लिए संयुक्त राष्ट्र का ठप्पा लगना आवश्यक है। संयुक्त राष्ट्र में हिंदी की अनिवार्यता उसका लोकतांत्रिक अधिकार है और उसे यह अधिकार मिलना ही चाहिए। इसके लिए हिंदी अनुरागी जिस ढंग से प्रतिबद्ध हैं, उस प्रतिबद्धता से ही हमारी सरकार को भी तत्परता दिखानी होगी। संयुक्त राष्ट्र पर हिंदी का झंडा फहराने के लिए भारतवासियों को भी हिंदी के प्रति समर्पण भाव प्रदर्शित करना होगा।
थोड़ा रुककर विचार करें, तो आज की स्थिति अपने घर में ही संतोषजनक नहीं है, दृश्य ऐसा है कि हिंदी हँस रही है, किंतु हिंदी वाले रो रहे हैं। हिंदी फैल रही है, किंतु उसके बोलने वाले सिकुड़ रहे हैं। अँग्रेजी आज भी शिक्षा का लोकप्रिय माध्यम बनी हुई है। नन्हे – मुन्ने शिशुओं को शिक्षा अपनी मातृभाषा में नहीं, अँग्रेजी में लेनी पड़ रही है। इसने हिंदी को ‘हिंग्लिश’ बना डाला है। अतः यह नितांत आवश्यक है कि हम अँग्रेजी का पूर्ण बहिष्कार करें तथा अपने देश में हिंदी को राष्ट्रभाषा का स्थान देकर महिमामंडित करें, जिससे वैश्विक समुदाय को हमारी ओर उँगली उठाने का अवसर न मिले। विश्व मंच पर हिंदी को स्थापित करने के लिए भारतीय संविधान संकल्पबद्ध है तथा सम्यक एवं समवेत रूप से प्रयत्नशील होकर ही हिंदी को विश्व भाषा बनाने का स्वप्न साकार होगा। हम अपने कार्य – व्यवहार में हिंदी अपनाने का दृढ़ संकल्प आज ही लें।
— गौरीशंकर वैश्य विनम्र