गीतिका
बड़ा धर्म से देश, मनुज-व्यवहार बड़ा।
मात्र आवरण वेश,सदा उपकार बड़ा।।
छोड़ रूढ़ता मूढ़, सोच संकीर्ण न कर,
क्यों कुपंथ आरूढ़,न हो गद्दार बड़ा।
मन में तेरे मैल, अहित करता जन का,
विस्मृत अपनी गैल,करे व्यभिचार बड़ा।
करनी का परिणाम,सभी को मिलता है,
गति का कर्म प्रमाण,निरत आचार बड़ा।
बनें न रावण कंस,विनाशक अपने ही,
अपने ही कर ध्वंस,ज्वलित अंगार बड़ा।
सब अपने में लीन,स्वार्थ के सागर हैं,
लेते सब कुछ छीन,छली संसार बड़ा।
‘शुभम्’ सुदृढ़ आधार,बनाना है अपना,
प्रभु का नाम उचार,मधुर उद्गार बड़ा।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्’