माननीय टमाटरजी की बात
जी महोदय! जी मान्यवर!!यह मौसम तो आम का ही है।किंतु आम के मौसम में टमाटर की चर्चा ही खास है।आम को पूछता ही कौन है ! आम के नाम पर तो नेता भी हो जाता मौन है। तैयार बैठा है बैंक भी देने उसे लोन है। लगता है अब टमाटर के पेट में ही समय का वास है।इसलिए हर खास-ओ-आम की जुबाँ पर माननीय टमाटर जी का आवास है। अपना भी कुछ ऐसा ही विचार है। क्या टी वी,क्या सोशल मीडिया सबका एक ही आधार है।और तो और यही तो कह रहा आज का अखबार है।सबका कुल मिला कर यही एक सार है , कि आम सभा से संसद तक टमाटर की भरमार है। क्या सास बहू, क्या भैंस, बकरी या गऊ,दिल्ली,बनारस या मऊ,किस – किस की बात कहूँ? सब जगह टमाटरी बुखार है।जो इतने ऊँची डिग्री पर जा चढ़ा है ,लगता नहीं कि कब उसकी बाढ़ का उतार है।
मैंने स्वयं अपने कानों से सुना है।नहीं,मैंने कोई ये सपना नहीं बुना है कि अब टमाटर
की प्रोन्नति होने से उसका आसन बहुत ऊँचा हो गया है। अब वह फ्रिज़ में नहीं रहता ,वह तिजोरियों की शोभा बन गया है। सासें बहू को दाल में तड़का लगाने के लिए अलमारी का लॉकर खोलती हैं,फिर उसमें से आहिस्ते से एक टमाटर बाहर लाती हैं, अलमारी में ही रखा चाकू उठाती हैं। और टमाटर को लाड़ लड़ाती हैं। तब कहीं जाकर एक मंत्र जैसा बुदबुदाती हैं और उदासी भरा मुँह बनाती हैं। तब जाकर टमाटर को शहीद कराती हैं। बचा हुआ आधा भाग पुनः तिजोरी में सजाती हैं।इतना ही नहीं, ताला लगा चुकने के बाद चाबी का गुच्छा अपने पेटीकोट में छिपाती हैं।
जब किसी ‘आम’ को उसकी अपनी औकात से अधिक ऊपर चढ़ा दिया जाता है ,तो
ऐसा ही नजारा देखने में आता है।जहाँ किसी खास को एकदम नहीं सुहाता है।जो आम से खास हो गया हो, सब्जी से बढ़कर सेव ,कीवी से ऊपर पास हो गया हो।उसके रुतबे फिर देखे नहीं जाते। सभी कोई समझ भी नहीं पाते।क्योंकि वह अहं में डूब जाता है इतराते-इतराते। उसे फिर प्याज, गोभी, शलजम आदि कदापि नहीं भाते। जिन टमाटरों पर धनिक लोग लगाने लगें छाते, उन टमाटरों की रक्षा में होने लगे जगराते। चोर डाकू भी उन्हें चुराने अथवा डकैती डालने चले आते।
टमाटर से सारे सब्जी क्या फल बाजारों में गरमाई है।कहने लगी हैं हरी मिर्च, भिंडी ,तोरई कि इस मुए को धर्म बदलने में भी शर्म नहीं आई है? कभी हमारे साथ फिरता था मारा-मारा ! अब चार ही दिन इतना बढ़ गया पारा कि हमारा छोड़कर के साथ जा बैठा सेव अन्ननास के संग! लगता है कि इसको भी आदमी की तरह चढ़ गई है भंग, इसलिए बदल रहा लाल से गुलाबी रंग।
पूँछ की तरह साथ में लगा रहता था हमारे। थोड़ी सी ललामियात क्या बढ़ गई कि कर गया किनारे।अन्यथा लूटता था हमारे संग में बहारें।कभी आलू-टमाटर, कभी बैंगन -टमाटर, कभी गोभी – टमाटर, कभी आलू मटर – टमाटर,कभी दाल में टमाटर, कभी तड़के में टमाटर, कभी नाश्ते की मेज पर बैठता था बराबर। पहले तो हम ही थीं, बाद में पीछे चिपका रहता था। अब तो धर्म परिवर्तन कर सब्जी से फल हो गया। हमें क्या अपने लिए ही काँटे बो गया। ‘भई गति साँप छुछून्दर केरी’ के अनुसार इधर का रहेगा न उधर का। एक दिन सेव ,संतरा ,मौसमी ,कीवी सब इसे दुत्कार देंगे।ऐ!कहाँ आ घुसा रे तू हम फलों के बीच में।हमें क्यों घसीटना चाहता है तू कीच में।तू जो भी है वहीं जा।और सब्जी वाले की जबान से अपनी आवाज गुंजा; :आलू है! गोभी है !बैगन हैं! टमाटर हैं ! हरी मिर्चें हैं ! धनिया हैं! तेरी हमारे साथ क्या संगत, सही बैठ नहीं पाएगी तेरी रंगत, इसलिए बदल कर वहीं जा जहाँ सजी है तेरी पंगत। चार दिन की चाँदनी फिर अँधेरी रात। यही तो होनी है आगे न सुन तात। आज तो बस यहीं तक करनी है हमें माननीय टमाटर जी की बात।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्’