ग़ज़ल
आज अरि को देख सीमा से भगा कर सो गये
मेंढ़ पर वे सब अभी काँटे उगा कर सो गये
वो चहलकदमी किये ही जा रहे थे देखते
शत्रु जो देखा उधर उसको मिटा कर सो गये
देश की ख़ातिर यही तो ज़िंदगी पायी सुनो
ग़म नहीं होता कभी उसको लुटा कर सो गये
पीठ तो सैनिक दिखा सकते नहीं सोचो ज़रा
वक्त आया देख सबको ही जगा कर सो गये
आज महफ़िल जो सजी देखी मज़ा लेने लगे
एक ही तो वह ग़ज़ल गुनगुना कर सो गये
जो चली गोली दनदनाती हुई गुज़री तभी
बचबचाते ही तभी सिर को हटा कर सो गये
कर्म होता धर्म से भी तो बड़ा देखो तभी
देश का पूरा तभी क़र्जा चुका कर सो गये
जब बिछौना मिल सके होती रही तब देर ही
आस्माँ को ओढ़ धरती को बिछा कर सो गये
— रवि रश्मि’अनुभूति ‘