गीतिका/ग़ज़ल

धीरे-धीरे

दूर क्षितिज पर सूरज डूबा धीरे – धीरे

सागर के आगोश में समाया सूरज धीरे -धीरे !

अभी तलक जो सूरज टिका था पेड़ों की शाखाओं पर

गहन बादलों में अस्ताचल हुआ धीरे-धीरे !

लोहित रंग फैला था अब तक जो आसमानों में

रात की कालिमा गहराई धीरे-धीरे !

उड़ते परिंदों की लम्बी कतारें

लौट चली अपने घोंसलों की ओर धीरे-धीरे !

तारों जुगनुओं ने कर ली है तैयारी

सारी रात टिमटिमाने को धीरे-धीरे !

नींद से बोझिल आंखें आतुर है सो जाने को

मन बावरा  है सपनों में खो जाना धीरे-धीरे!

— विभा कुमारी नीरजा

*विभा कुमारी 'नीरजा'

शिक्षा-हिन्दी में एम ए रुचि-पेन्टिग एवम् पाक-कला वतर्मान निवास-#४७६सेक्टर १५a नोएडा U.P