गीतिका
इश्क मे घाव ही बस ,यार! दिये हैं मुझको ।
नही एक बार, बार बार दिये हैं मुझको ।
जिन्हें संभालने से जिंदगी फिसल जाये,
दोस्तों ने कई उपहार दिये हैं, मुझको ।
गले की फाँस बन गये है,जो मेरी खातिर
जहां ने ऐसे कई हार दिये हैं, मुझको ।
संभाल रक्खे हैं बोने को तेरी राहो में,
तूने उपहार में जो खार दिये हैं मुझको ।
मैं तेरा सच लिखूँगा, करके तुझे बेपर्दा,
कलम ने ऐसे भी अधिकार दिये हैं मुझको।
‘गंजरहा’ सामने वो कायर नही आयेगा ,
पीठ पर जिसने कई वार दिये हैं, मुझको।
— डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी ‘गंजरहा’