आफत में आ जाती है जान
बादलों को भी आजकल हो गया है गुमान
बस्तियां उजाड़ डाली बेघर हो गया इंसान
मंडरा रहे हैं आसमान में तांकते इधर उधर
धरती पर उतर आए हैं छोड़ रखा है आसमान
थोड़ा सा भी घूमते दिखते हैं जब ऊपर आसमान
थर थर कांपता है कलेजा आफत में आ जाती है जान
पूरा गांव रहता था अपने परिजनों के साथ जहां
सन्नाटा पसरा है वहां हो गया सब वीरान
कितनी विचित्र बात है मेघ झमाझम बरस रहे
फिर भी लोग पीने के पानी को तरस रहे
खड्ड चो नाले नदियों में पानी की देखो रफ्तार
अमीर तो सुख से जी रहा गरीबों के घर टपक रहे
सुन लो अब हमारी पुकार बन्द करों बरसाना पानी
इस पानी के कारण ही मुश्किल हो गई ज़िंदगानी
जिधर भी देखो चारों ओर है पानी ही पानी
छत नहीं रहा सिर पर बाहर पड़ रही रातें बितानी
सावन की घटाओं से मिलता था बहुत सकूँ
बरसना बन्द कर किसी की जान के पीछे क्यों पड़ा है
हसीना की जुल्फों से होती थी तेरी तुलना
आज क्यों सभी को सताने पर अड़ा है
— रवींद्र कुमार शर्मा