एक बूँद
सोई थी एक बूँद
जलद की क्रोड़ में
कुछ अलसायी
कुछ सकुचाई
अस्तित्व की तलाश में
किंकर्तव्यविमूढ़ सी
चली धरा की ओर
समक्ष रक्ताभ कमल
हुई आकर्षित
पर कुछ पाने की चाह
सागर की ओर खींच लाई
निरख सीप को
हर्षित और ललचाई
अंतस में उठी हूक
वह मचली, गति मंद हुई
“पिहूँ-पिहूँ ” पुकार आई
घोले करूण रस
वृक्ष सिरे पर लहराई
देख चातक के
चिर-प्रतिक्षित आस
तृषित नयन, आकण्ठ प्यास
विह्वल हुई, जा मिली
पूर्ण हुई, दे जीवन दान।
— डा अनीता पंडा ‘अन्वी