झरता है सास -बहू का प्रेम प्रपात
पर्व और त्योहार मनाने की वागड़ अंचल की अपनी अनूठी परम्पराएँ और अँदाज रहे हैं जिनमें पारिवारिक आत्मीयता, सामजिक सौहाद्र्र और परिवेशीय संगीत प्रतिध्वनित होता है। रक्षाबंधन आम तौर पर सारे देश में मनाया जाने वाला पर्व है किन्तु वाग्वर अंचल में इसके साथ एक सामाजिक रस्म भी सदियों से जुड़ी हुई है जो सास-बहू की आत्मीयता को अच्छी तरह अभिव्यक्त करती रही है। इस रस्म को ’ बैरका ’ कहा जाता है।
रिश्तों की डोर मजबूत करने का संदेश
राखी श्रावण पूर्णिमा का पर्व है जब सावन की रिमझम और पर्व-त्योहारों की शुरूआत जीवन में आनन्द व खुशहाली भर देती है। वागड़ क्षेत्र में ये दिन नव वर-वधुओं के लिए मौज-मस्ती व खुशियों के होते हैं। वागड़ क्षेत्र में नवविवाहितों की पहली राखी पर ’’बैरका’’ मनाने की परम्परा है। बैरका का मतलब दोनों परिवारों में स्थापित रिश्तों की डोर और अधिक मजबूती प्राप्त करती रहे। दोनाें परिवारों में प्रेम व उत्साह बना रहे तथा सावन की तरह दोनों परिवारों में खुशहाली बनी रहे।
पुराने जमाने में विवाह के बाद जब वधू पीहर जाती थी तो दीवाली पर ’दीवाली आणा ’ की रस्म के बाद ही ससुराल लौटती थी । ऎसे में बीच में राखी आ जाने पर ‘बैरका’ की रस्म का विधान रहा है जो कि सास-बहू के बीच आत्मीयता अभिव्यक्ति की आत्मीय परंपरा का प्रतीक है। हालांकि अब विवाहोपरान्त ज्यादा दिन तक वधू के मायके रहने की परिपाटी नहीं रही। इसके बावजूद ’बैरका’ का आज भी सामाजिक रस्म के रूप में वजूद उसी तर्ज पर बना हुआ है।
सास करती है अपनी पुत्रवधू का सम्मान
इस परम्परा के अनुसार शादी के बाद की पहली राखी के एक-दो दिन पहले सास ’’बैरका’’ की रस्म पूरी करने अपनी बहू के पीहर जाती है और बहू को नारियल के गोले, मिठाइयाँ, परिधान, फल, सूखे मेवे, कांच-कंघा, चूड़ियां, कुकुंम सिन्दूर, गजरा आदि सोलह श्रृंगार की सामग्री, जरी गोटे से भरी चुंदड़ी की साड़ी व अन्य वस्त्रादि, रक्षा सूत्र का धागा व अन्य उपहार बहू को भेंट करती है। पहले नारियल के दो गोले व मिठाई आदि दिये जाते थे । इस ’सोंगा’ कहा जाता है।
बैर मिटाता है बैरका
इस दौरान सास अपनी बहू की सुख-समृद्धि की कामना करती हुई यह आशीर्वाद देती है कि दोनाें परिवारों में किसी भी प्रकार का किंचित मात्र भी बैर न हो और आपस में मिल-जुल कर दोनाें परिवारों में खुशियां दिन दूनी रात चौगुनी अभिवृद्धि पाती रहें। इस दौरान सगे-सम्बंधों की महिलाएं भी जमा होती हैं । लोक गीतों का दौर भी चलता है। बैरका के लिए आयी सास व अन्य मेहमानों को वधू के पीहर की तरफ से साड़ियाँ, खीर-पूड़ी, मालपुए या अन्य पक्वान्न का भोजन कराया जाता है। इसके बाद इन मेहमानों को ससम्मान बिदा किया जाता है ।
मेहमानबाजी के दौरान ही बहू के तमाम हाल-चाल जानने, आत्मीय भाव का इजहार करने और रक्षाबंधन की शुभकामनाएँ देकर वस्त्रादि उपहार के साथ लौटती है। राखी पर्व के बाद किसी भी दिन अच्छे मुहूर्त में वधू पीहर से ससुराल लौटती है।
ससुराल पक्ष से होता है वर का सत्कार
बैरका की रस्म नव वर-वधू के लिए उपहार देने व लेने की रस्म है। जिसमें नव वधू के साथ ही नव वर को भी आदर और सम्मान दिया जाता है। उसके ससुराल से दूल्हे का ससुर या साला आता है और दूल्हे के लिए नारियल के दो गोले, मिठाई, फल, मेवे, कपड़े, रक्षा सूत्र सहित अन्य उपहार भेंट करते हैं, दामाद की समृद्धि व खुशहाली की कामना करते हैं।
बैरका की रस्म पर वागड़ के ग्रामीण क्षेत्रों में नई बहू व दामाद को सूखे नारियल के हार बनाकर भी पहनाए जाते हैं और बताशे व शक्कर पारे से बहू की से गोद भरी जाती है ताकि दोनों पक्षों के परिजनों में ये मिठास और प्रगाढ़ समरसता ताज़िन्दगी बनी रहे। वागड़ अंचल के ग्राम्यांचलों में आज भी सोलह श्रृंगारों से लक-दक नई दुल्हनें ससुराल से भेजे गए सूखे नारियल के हार पहन कर अपनी सखी सहेलियों के साथ श्रावण के झूलों का आनन्द लेती भी दिखाई देती हैं।
सास-बहू के संवाद सातत्य और पारस्परिक प्रेमोल्लास को अभिव्यक्त करने वाली इस तरह की सामाजिक रस्में वागड़ अंचल में तकरीबन हर पर्व के साथ प्रचलित हैं जो बताती है कि सास-बहू के मध्य आत्मीयता के भाव किस कदर यहाँ की जमीं में घुले-मिले हुए हैं।
— डॉ. दीपक आचार्य