कविता

तेरे मेरे रिश्ते

क्या करूं कुछ समझ नहीं पाता हूँजितना समझता, उतना ही उलझ जाता हूँ,माना कि बड़ा सम्मान करती है तू मेरापर तूझे समझने में दिमाग लुप्त हो गया मेरा।तू दूर होकर भी पास रहती हैमेरी हर गतिविधि पर पैनी नजर रखती है,फिर भी तू बहुत दूर दिखती है।वैसे तो तू भूतनी बन मुझको सताती हैमुझे डराती है रुलाती भी हैपर मेरे मन को पढ़ना भी तू जानती है।तूझे और तेरे साथ अपने रिश्ते को तू ही बता मैं क्या नाम दूं?तू तो दादी अम्मा नजर आती, बहुत खिझाती भी हैबहन बन प्यार दुलार भी तू ही करती हैबेटी का अधिकार भी जताती है,नाज़ नखरे भी खूब दिखाती हैगुस्सा भी खूब दिलाती हैबस पीछा भर नहीं छोड़ती है।क्योंकि दूर होने के हर रास्ते परतू चौकीदार बन बैठी रहती हैशायद अपने क़र्ज़ तू मुझसे वसूल लेना चाहती है।जाने किस जन्म का कर्ज इस जन्म मेंतू मुझसे वापस चाहती हैइसीलिए तो तू अपने साथ हमसे रिश्ते निभाना चाहती है।तभी तो तू मुझे हंसाती और रुलाती हैअपना हक अपने अंदाज में जताती हैमेरी छोटी सी पीड़ा पर भीतू अनायास सहम सी जाती है,पर रिश्ते की डोर मजबूती सेखुद थामे रखना चाहती हैबस यही बात मुझे जीवन का अहसास कराती हैऔर मेरी आंखें नम हो जाती हैंतेरे मेरे रिश्ते की बस यही मात्र यही बात समझ में आती है।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921