मन दर्पण झूठ न बोले!
मन दर्पण में सहज ही झांककर देखा, दिखा
अनजाना चेहरा विहंसता, करता परिहास।।
दंभ, ईर्ष्या, अहंकार षडरिपु थे बैरी मेरे,
या दुनिया मुट्ठी में बांधने का असफल प्रयास।।
स्वार्थी, लालची छवि एकटक निहार रही थी,
सत्य जानती, भोलेपन का मजाक उड़ाती।।
“क्या मैं और तुम अलग किस्म, अलग जिस्म हैं?”
‘नकाबपोश’ हो तुम, आईना ठठाकर हंसा।।
सीधा-साधा, भोला-भाला ईमानदार इंसान हूं मैं,
‘नादान’ अपने आप को न पहचाना तुमने।।
“कुर्सी पर बैठते ही रंग बदला गिरगिट-सा,
सत्तालोलुप, जन-धन से ऐश-आराम फरमाता?
अकाल हो या आंधी तूफान, तेज बवंडर,
उलांचे भरे हिलोर, घर तेरा हरियाला हो जाता।।
ज्ञान दान पावन पुण्य कर्म जान ले सखा रे,
शिक्षा का बाजार, चहुँ ओर क्यों फैला दिया।।
नारी देवी समान, बेटी, भगिनी, अर्धांगिनी,
निर्लज्ज, माँ का आँचल छिन्न-भिन्न कर दिया।।
गरीब की रोटी, स्वेद मोती, लुटा संसार,
कैसे होगी तेरी जीवन नैया भवसागर पार।।
मानव जीवन मिला भवो भव की पुण्याई से,
रे मनुज, धर्मानुरागी बन, सत्कर्म से हो सार्थक।।”