कहानी – फीनिक्स
अखबार में दिए वैवाहिक विज्ञापन के बाद जिन सात लड़कियों की तस्वीरें आई थी,वे सब के सब मेघराज के आगे रख दी गई थीं। मेघराज खतों में उल्लेख जीवन परिचय के अवलोकन के साथ तस्वीरें भी देख रहा था। तभी एक तस्वीर देख वह चौंक उठा। सामने बैठी मां भी बेटे की भाव भंगिमा को देख चौंक उठी थी। मेघराज अब भी उसी तस्वीर पर चिपका हुआ था। लगा एक पल के लिए वह कहीं खो सा गया। लेकिन अगले ही पल वर्तमान में लौट आया। मां सामने बैठी थी। एक तस्वीर छोड़, उसने बाकी तस्वीरों को अलग रख दिया। फिर बड़े प्यार से उस तस्वीर को उसने मां के सामने रख दी।
मां तस्वीर को नहीं, मेघराज का मुंह ताकने लगी। फिर तस्वीर देख बोली” यह तस्वीर तो किसी विधवा की लगती है, और उसने बड़ी ही उमंग के साथ तुम्हें भेज दी है!”
मेघराज ने कुछ नहीं बोला। एक दम से चुप।
थोड़ी देर बाद मां ही पुनः बोली”क्या सचमुच में तुम्हें यही तस्वीर पसंद है?”
“तस्वीर नहीं मां, यही लड़की मुझे पसंद है!”मेघराज का स्वर बुलंद था।
“पर बेटे,यह तो सचमुच की विधवा लगती है।” मां कुछ कुछ गंभीर होने लगी थी।
“मुझे विधवा- सधवा से कोई मतलब नहीं है मां। आप लोग ने मुझे लड़की चुनने को कहा हैं तो मैंने लड़की चुन ली है। अब तुम लोग जानो।”
लड़की की सादगी पन, मां के मन में शंका पैदा कर रही थी। मां नहीं चाहती थी कि बेटा कोई ऐसी लड़की चुन ले और बाद में रोता फिरे। मां की चुप्पी से मेघराज का मन भी डोल रहा था। कहीं मां मुकर न जाए। उसी ने फिर कहा –
“देखो मां,मैं फिर कहता हूं। यदि तुम लोग सचमुच मेरी शादी को लेकर चिंतित हो तो मैंने कह दिया, शादी करूंगा तो इसी लड़की से नहीं तो नहीं!”
“लेकिन यह लड़की है कहां कि, उसने तो अपना पता ही नहीं लिखा है?” मां, मेघराज को हर तरह से परख लेना चाहती थी। ताकि बाद में कोई विवाद न हो। मेघराज की आंखें अब भी अर्जून की तरह उसी तस्वीर पर टिकी हुई थी।
कुछ ही देर में वह तस्वीर घर में चर्चा का विषय बन गई। बाद मेघराज ने घर वालों को उस लड़की नाम और पता दे दिया। उसकी बात मान ली गई। लेकिन घर वालों की ओर से उसे” लड़की विधवा नहीं -कुंवारी होनी चाहिए”साफ कहा गया। घर वालों का यह शर्त मेघराज को थोपा हुआ सा लगा था।
मेघराज को मालूम था। यदि इस वक्त उसने रचना के बारे में कुछ बताया तो घरवालों से मदद की बात सोचना तो दूर, सब के सब उसके विरोध में उठ खड़े होंगे। बचपन से उसने अपने समाज की दोमूंही नीति को खुली और फटी-फटी आंखों देखा है। सो इस समय रचना के संबंध में बहुत ज्यादा बताना खुद के पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा था। रचना जिसे वह डेढ़ साल से जान रहा था। और जिसने बड़ी उम्मीद और हसरतों के साथ अपनी तस्वीर भेज दी थी। मेघराज उसे किसी भी कीमत पर निराश करना नहीं चाहता था।
पहाड़ी की तराई पर बसा उस रामपुरा गांव में कोई डेढ़ साल पहले मेघराज की मुलाकात रचना से अजीबोगरीब स्थिति में हुई थी। उस गांव में वह कैसे और किधर से पहुंच गया था। खुद मेघराज को याद नहीं था। हां यह सच है कि उन दिनों वह जिस मानसिक तनाव से गुजर रहा था, ऐसे हालात में आदमी या तो पागल हो जाता है या फिर ट्रेन के आगे कूद जाता है। रामपुरा में आकर मेघराज को जैसे एक नया जीवन मिला था। पहाड़ों के सुनहरी वादियों ने उसे संभाल लिया था। इसी के साथ मानसिक तनाव से उसे मुक्ति मिली और दिल को सुकून मिला था। आंतरिक मन: स्थित से अब वह उबर चुका था।
“कहीं से घूमने आया होगा, जैसे पहाड़ों पर घूमने और भी आते हैं!”शुरू शुरू में उसके प्रति रामपुरा गांव वालों की यही सोच थीं। इसके उलट वह गांव वालों से कटा कटा और दूर-दूर ही रहता था। दिन भर पहाड़ों पर घूमते रहता। खाने को जो मिलता,खा लेता और नदी-झरने का पानी पी लेता था। शाम होती वह गांव लौट आता और गांव के बाहर पहाड़ी शिव मंदिर में रात भर पड़ा रहता। सुबह फिर वही क्रम, दिन फूटने से पहले जाने किधर निकल जाता, किसी को कोई पता नहीं। दिन भर न खाने की सुध न नहाने धोने का फ़िक्र। पहाड़ों का कंद, मूल,फल फूल ही जैसे उसका भोजन था।
हां, कभी कभी पहाड़ों पर उसकी मुलाकात गड़ेरियों से अवश्य होती। पर यहां भी वह किसी से बात नहीं करता। दार्शनिकों की भांति खामोश निगाहों से देर तक, दूर तक भेड़ों को, उनके मेमनों को जाते हुए देखता रहता था। उसके देखने की भाव भंगिमा से मालूम होता दीन दुनिया से कटा हुआ कोई इंसान हो। लोगों से उसका मन भर गया हो अथवा दुनिया वालों से उसे विरक्ति हो गई हो। मतलब कि संसार से कोई वास्ता नहीं,मोह माया से कोई लेना देना नहीं। सबसे अलग, सबसे जुदा जुदा! हर चीजों को वह बड़ा कौतूहल नजरों से देखा करता था। तब उसकी बढ़ी हुई चूल दाढ़ी भेष भूसा से प्रतीत होता जैसे उसने वैराग्य ओढ़ रखी है। धीरे धीरे वह रामपुरा गांव में चर्चा के केन्द्र में आ गया। और फिर एक दिन मेघराज गांव के प्रधान मंगतराम शर्मा के सामने खड़ा था। मंगतराम की पारखी नजरों ने बहुत गहराई से परखा। कहीं से वह बदमाश नहीं लगा, ऐसा ग्राम प्रधान की आंखें बोल रही थी!
“कहां का रहने वाले हो?” फिर भी ग्राम प्रधान ने जानना चाहा था।
“बोकारो, झारखंड का!”
“यहां किस लिए आए हो?”
कहना चाहा था” मरने के लिए” पर मुंह से निकल गया”घूमने के लिए।”
“यहां कब तक रहना है?”
“पता नहीं!”
“कहां तक पढ़ लिखे हो?”
“जितना से दुनिया को समझ सकूंबस उतना ही!”वह हर बात को गोल मटोल सा जवाब दे रहा था।
मंगतराम उसकी बुद्धि परखना चाहा। बोला” यहां बच्चों के स्कूल में एक शिक्षक की कमी है, बच्चों को तुम पढ़ाना चाहोगे?”
अचानक से इस सवाल ने मेघराज को अचरज में डाल दिया। अकबकाई नजरों से उसने अगल बगल देखा। कई आंखें उसे देख-भाल रही थीं। उसके जीवन में यह पहला अवसर था जब उनसे कोई काम करने को कहा जा रहा था। वरना आज तक तो वह कोई काम किया ही नहीं था- खाने के सिवाय और जीवन में कभी कोई काम करना भी पड़ेगा,इसकी कल्पना तक नहीं की थी उसने। बचपन से लेकर आज तक का रील दिमाग में दौड़ गया था। मां बाप का वह दुलारूवा बेटा था। खान पान, कपड़ा- लता,रूपए पैसों की कभी कमी नहीं रही। बचपन से लेकर आज तक जो चाहा, जो मांगा उसे मिला, कभी शिकायत या रूठने तक का भी मौका नहीं मिला था उसे। इच्छा करने भर की देर कि हाजिर! बाप उसका बोकारो हाई स्कूल का हेडमास्टर थे। ऊंची तनख्वाह थी। बड़े भाई सी सी एल में डॉक्टर था। तनख्वाह और प्राइवेट इलाज से लाखों घर में घुस रहा था। मेघराज का अभावों से कभी साक्षात्कार न हुआ। पर्स कभी खाली नहीं रहता। दर्जनों दोस्त मधुमक्खियों की भांति हमेशा उनसे चिपके रहते। मजे की बात, उन्हीं दोस्तों के कारण एक दिन उसे घर छोड़ भागना पड़ा था।
“जब तक यहां हूं, बच्चों को पढा दिया करूंगा!”उसने धीरे से कहा और उस बुढ़िया की ओर देखने लगा जो कब से उसे टकटकी लगाए देखे जा रही थी। उस रात मेघराज का खाना और सोना मंगतराम के यहां ही हुआ।
सुबह दस बजे मेघराज को लेकर मंगतराम स्कूल पहुंचे। स्कूल की एक मात्र शिक्षिका रचना पहले से ही उन दोनों के इंतजार में बाहर खड़ी थी। वह जब मेघराज से रचना का परिचय करा रहे थे, मेघराज का सारा ध्यान रचना पर केंद्रित था। सुन्दरता की अद्भुत रचना। साड़ी पर सादगी वाली रूप मेघराज जीवन में पहली बार देख रहा था। पहाड़ी झरनों सी चंचल आंखे, फूलों सी कोमल बदन और कमर तक झूलते काले लंबे बाल, किसी अप्सरा से कम नहीं थी पहाड़ी रचना! अलौकिक सौंदर्य को मेघराज पहली बार इतने करीब से देख रहा था।
उस दिन पूरी रात मेघराज ठीक से सो नहीं सका। बार बार उसकी आंखों के सामने रचना का चेहरा आ जाता और वह करवटें बदलता रहा। जीवन में उसने बहुत रंग, बहुत रूप देखा था। कॉलेज जमाने में एक से बढ़कर एक लड़कियों से उसका वास्ता पड़ा। कितनों से नजदीकी संबंध बना। लेकिन वो संबंध देह के रास्ते शुरू होता और पर्स के रास्ते खत्म हो जाता। दिल का कमरा तो आज़ भी उसका खाली था। रचना को देखने के बाद उसका वही दिल आज जोरों से धड़क उठा था। उसे लगा, आज तक उसने जो कुछ भी देखा वो केवल बाहरी तड़क भड़क था। रचना के सामने उसका कोई मोल नहीं।
शुरू शुरू में स्कूल में बच्चों को पढ़ाना उसे अटपटा सा लगता। कभी तो ऐसा प्रतीत होता कि यह काम उसके बस का नहीं है। कई बार रामपुरा छोड़ देने को भी सोच लिया। लेकिन अगले ही पल रचना का रूप रंग उसके रास्ते आ जाता। फिर उसका मन उस पहाड़ी गांव रामपुरा में धीरे धीरे रच बस गया।
उसके रहने और खाने पीने की व्यवस्था दयावती देवी के यहां सेटल कर दी गई। इसके लिए वह बार बार जोर दे रही थी। यह वही दयावती थी। जिसका एक मात्र बेटा मंदिर -मस्जिद को लेकर उपजे दंगों की भेंट चढ़ गया था। तब उसका बेटा जॉब की तलाश में दिल्ली की सड़कों को नापता फिर रहा था। एक रात दंगों की लपेट में आ गया। रात के अंधेरे में किसी ने सामने से पेट में छूरा घुसेड़ दिया था। सप्ताह दिन तक लाश नाली में सड़ती रही। दयावती के दुखों का अंत यहीं नहीं हुआ। पति सी आर पी एफ में था। बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान पलामू-गढवा में तैनात था।वोट के दिन उसकी गस्ती जीप बारूदी सुरंग की चपेट में आ गई। जीप में सवार सभी जवानों के चिथड़े चिथड़े उड़ गए थे। तब से दयावती के अंदर जीने की ललक ही खत्म हो गई थी। कब खाती थी, क्या खाती थी। सोती भी थी या नहीं, किसी को मालूम नहीं। उसके घर में रात को जलते हुए रोशनी का देखना। एक जमाना बीत चुका था। उसी घर में अब शाम होते ही लालटेन की रोशनी से घर भर जाता था। मेघराज के रूप में उसका बेटा रामू(रमेश)) मिल गया था।
इधर समय के साथ मेघराज का मन बदला। वही बिदका हुआ मन अब बच्चों को पढ़ाने में रमने लगा था। बच्चे भी उसके साथ घुल मिल गए थे। पढ़ाई के साथ साथ मेघराज अब बच्चों को खेल कूद भी सिखाने लगा था। कबड्डी उसके बचपन का सबसे प्रिय खेल था। वैसे वह” कीडीकौं” जिसका आधुनिक रूप कराटे है। का भी मेघराज खिलाड़ी था। बचपन में उसे भी दोस्तों के साथ खूब खेला करता था। उसके आगे देहगर दोस्त भी टिक नहीं पाते और अपनी देह बचाते फिरते थे। स्कूल में मेघराज ने उसी खेल को बच्चों को सिखाना शुरू कर दिया था। बच्चों के साथ मेघराज का बच्चा बन जाना, फिर बच्चों के साथ उछल कूद करना, यह देख रचना रोमांचित हो उठती थी। मुंह से बोलती कुछ नहीं पर अंदर से वह बेहद प्रफुल्लित रहने लगी थी। मेघराज में भी जीने की ललक वापस आने लगी थी।
स्कूल में बच्चों को पढ़ाते हुए मेघराज का रामपुरा में छः माह से ऊपर हो चुका था। गली मुहल्ले,चौक चौराहे,हाट बाजार के लोग उसे जानने लगे थे। खुद उसके जीवन का मायने बदलने लगा था। इस बीच रचना उसके बारे क्या सोचती है कभी उसने जानने की कोशिश नहीं की और न ही उसकी जाति ज़िन्दगी में कभी झांकने का प्रयास किया। रचना की ओर से भी ऐसी कोई पहल होते नहीं देखा गया। दोनों ने अपने अपने अतीत के दरवाजे को बंद कर रखे थे जैसे। हांलांकि स्कूल में पढ़ाई को लेकर दोनों के बीच बातें -बहसें खूब होती, नोक झोंक भी होता। पठन पाठन की सामग्री लाने हाट बाजार दोनों साथ जाते, लेकिन तब सिर्फ काम की बात होती। दाम की बात होती। पर भूल कर भी दोनों एक दूसरे पर बात नहीं करता। डरता, कहीं कोई राज न खूल जाए।
उसी तरह की एक शाम थी। मेघराज हवा खोरी से अभी अभी लौटा था। देखा, रचना दयावती के पास बैठी किसी बात पर हंस रही थी। दयावती को भी इतने दिनों में पहली बार हंसते हुए देख रहा था। पहाड़ी झरनों सी हंसती रचना में आज उसने गज़ब की चमक देखी थी। वह ठिठक कर बाहर ही रूक गया, एक आड़ लेकर। कुछ देर बाद रचना चली गई।
खाने के वक्त मेघराज ने दयावती से पूछा” मौसी, रचना मुझे एक पहेली जैसी लगती है,सहज रहती है तो बहुत अच्छी लगती है लेकिन कभी कभी उसे उदास देखता हूं तो मुझे बड़ा डर लगता है, जाने क्या है, उसके अंदर!”
“विधाता ने उसके साथ बड़ा अन्याय किया है, ऐसा लोगों का कहना है। परन्तु मेरा मानना है कि उसके साथ अन्याय विधाता ने नहीं, हमने किया है, हमारे समाज ने किया है!”
“मैं समझा नहीं मौसी, रचना के बारे में बताओ न, मैं जानना चाहता हूं!”
“क्यों? रचना पसंद है!” दयावती मेघराज की थाली में एक और रोटी डालते हुए हंस पड़ी।
मेघराज झेंप सा गया”नहीं मौसी,ऐसी बात नहीं है!”
“रचना की शादी तीन साल पहले दिल्ली के एक खाते पीते घर के लड़के के साथ हुई थी!”दयावती ने बात की गठरी खोली”लड़का रचना के मामा मामी की पसंद का था। उसके मामा मामी भी दिल्ली में ही रहते थे। तब रचना अठारह साल की थी और बी ए की पढ़ाई कर रही थी। शादी में तिलक दहेज खूब दिया गया था। सब खुश थे। एक पहाड़न को शहर वालों ने अपना लिया। ऐसा सब कह रहे थे। लेकिन यह कहा शायद दुनिया को रास नहीं आई। रचना का घर बसने से पहले ही उजड़ गया। सास ने लुआठी (लुकाठी) उठा ली -“डायन,आते ही मेरे बेटे को खा गयी। लेकिन उसने उन नेताओं को कुछ भी नहीं कहा, जिसके बहकावे में आकर उसका बेटा कारसेवकों की टोली में शामिल हुआ था। रचना के पति को उस वक्त कुछ लोगों ने घेर कर मार डाला था जब वह करोलबाग से अपने कपड़े की दुकान बंद कर घर लौट रहा था। ईंट पूजन से लेकर मस्जिद ढाहने तक में वह शामिल था।
यकायक मेघराज की आंखों के सामने बोकारो के कारसेवकों और उनके जत्थे की तस्वीर घूमने लगी थी। तब गांव कस्बों में एक ही नारा गूंजती सुनाई देती थी” ईंट से ईंट जोड़ेंगे, अयोध्या में राम मंदिर बनाएंगे! दान दीजिए, सहयोग कीजिए, जीवन सफल कीजिए,राम जी की कृपा आप पर बनी रहे!”देश में धार्मिक उन्माद काफी बढ़ गया था।
“रोटी खाओ, कहां खो गया तू?”दयावती ने मेघराज को कोची थी।
“हां मौसी, आपने ठीक कहा, देश में तनाव का दौर था। अच्छा मौसी, क्या रचना अब दूसरी शादी नहीं कर सकती है?”
“क्यों नहीं कर सकती है! वह अपनी मन मर्ज़ी की खुद रानी है। चाहेगी तो आज भी अच्छा से अच्छा लड़का मिल सकता है उसे!”दयावती ने कहा” लेकिन उसकी जाति समाज में बड़ा घोर प्रपंच है। लड़का दूसरी शादी कर सकता है। मरद चाहे तो पांच शादियां कर लें लेकिन बेटी बहन को दूसरी शादी की मंजूरी नहीं देगा, उसका मर्द समाज। और यदि किसी ने शादी कर ली तो कूल घातक कहलाएगी वह!”
“आप ठीक कहती है मौसी,यह समाज ही पाखंड के दलदल में पूरी तरह डूबा हुआ है। हमने भी देखा है, अपने गांव में, एक मिश्रा खानदान में शादी के छः माह बाद ही लड़की विधवा हो गई। मायके वालों ने उस पर सफ़ेद लिवास डाल दिया। दुर्भाग्यवश उसी खानदान में एक लड़का रण्डुआ हो गया। जैसे ही साल संवत् कटा। लड़का पुनः दूल्हे की गाड़ी पर चढ़ गया। दूसरी पत्नी धूमधाम से बिहा कर ले आया!”मेघराज बकता चला गया”लेकिन उस विधवा लड़की ने भी भिंगा जूता समाज के मुंह पर दे मारा। बड़े बहनोई जो उसी घर में रह रहा था, के साथ अंतरंग संबंध जोड़ ली और बम फटने जैसा, एक बेटे की मां बन गई। समाज बैठा। लड़की बोली” हमें बहनोई से प्यार हो गया हैबच्चा उसी का है! समाज उठ भागा।” मेघराज ने दयावती की ओर देखा और रोटी खाने लगा। दयावती मेघराज की कही बातों का ओर छोर ढूंढने लगी।
समय अपनी गति पर था और घटना चक्र अपनी गति पर। स्कूल से छूटना और पहाड़ों की ओर घूमने निकल जाना,यह मेघराज ने रोज का नियम बना लिया था। अकेले घूमना और लंबे लंबे पेड़ों से मौन संवाद करना मेघराज को बहुत अच्छा लगता था। पूराने गीत गुनगुनाते, झूमते गाते वह दूर तक चला जाता था। इधर कुछ दिनों से उसे लगता जैसे उसके पीछे पीछे कोई और भी चला आ रहा है। पलट कर देखता तो वहां कोई नहीं होता। बहुत दिनों तक वह इस भ्रम का शिकार बना रहा। तब वह अपने सर के पीछे हाथ मारता और हंस पड़ता” पागल कहीं का!”
आज भी वह एक झरने के किनारे किनारे अकेला चल रहा था। परन्तु आज उसके साथ एक संवाद भी चल रहा था” आप हमेशा, अकेले घूमने निकल जाते हो, कल बच्चों के साथ मैं भी पहाड़ पर चलूंगी,कई साल हो गए, पहाड़ पर नहीं चढ़ी हूं। घूमना फिरना जैसे हमारा छूट ही गया है!”
स्कूल बरामदे में खड़े मेघराज से रचना ने कहा था, आज ही दोपहर को। मेघराज के लिए यह सब कुछ अकल्पनीय और अप्रत्याशित था। मनमुग्ध दोनों की नज़रें चार हुई थी।
हल्की बदामी रंग की साड़ी-ब्लॉज में रचना आज कुछ ज्यादा ही खूबसूरत लग रही थी। केश विन्यास भी अद्भूत ढंग से संवार रखी थी उसने। सब कुछ पूर्व निर्धारित जैसा! रचना इस वक्त मेघराज के बिल्कुल पास पास, साथ साथ चल रही थी। बच्चे खेलने में मग्न थे। तभी पक्षियों का एक जोड़ा उनके ऊपर से निकल गया। चलते मेघराज के कदम रूके, उसने ऊपर की ओर देखा और रचना ने मेघराज की ओर। फिर दोनों एक दूसरे को देखने लगे। दोनों की धड़कनें तेज हो गई। यकायक मेघराज को लगा उसका हाथ रचना ने अपने हाथ ले लिया है। अगले ही पल रचना मेघराज से लिपटी हुई थी। तभी प्रेम से पगा उसका स्वर फूट पड़ा” मेघराज, मैं भी पक्षियों की तरह खुले आसमान पर उड़ना चाहती हूं। क्या तुम मेरा साथ दोगे?”
“जीवन के फैसले जल्दबाजी में नहीं लिए जाते हैं। आगे पीछे अच्छी तरह जान लेना जरूरी होता है। ताकि बाद में रोना न पड़े। मेरा अतीत एक अंडरग्राउंड खादान की तरह है!”मेघराज ने बोला था।
“मुझे तुम्हारा अतीत नहीं, वर्तमान चाहिए!”रचना बोली।
“सोच लो, तुम्हारे इस फैसले के विरुद्ध पूरा समाज उठ खड़ा होगा, तुम उनसे लड़ सकोगी?”
“तुम्हारा साथ मिला तो, अपने समाज से भी लड़ लूंगी!”रचना और जोर से मेघराज से लिपट गई थी।
शाम को खाना खाने के बाद मेघराज खाट पर लेटा तो रचना की याद सताने लगी”मुझे तुम्हारा अतीत नहीं वर्तमान चाहिए तुम्हारा साथ मिला तो समाज से भी लड़ लूंगी!”मेघराज देर रात तक रचना के बारे सोचता रहा। पर किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सका। मेघराज रचना को अपने अतीत के बारे बताना नहीं चाहता था। लेकिन रचना को धोखे में रखना भी उसके साथ एक सुंदर धोखा होगा और मेघराज ऐसा हरगिज नहीं चाहता था। मेघराज जो अपने अतीत को यहां आने के बाद भूल चुका था और केवल वर्तमान को लिए रामपुरा में जी रहा था। वह फिर दुबारा अपने अतीत में लौटना नहीं चाहता था। पर
रचना के शादी वाले प्रस्ताव ने उसे धर्म सकंट में डाल दिया था। और वह पूरी तरह द्वंद्व में घिर गया था।
सुबह होने के पहले उसने एक फैसला कर लिया। उसने एक पत्र लिखा” प्यारी रचना, तुम बहुत अच्छी हो, तुम्हारे साथ काम करने का मुझे मौका मिला,यह मेरे जीवन का सबसे कीमती पल है। तुमने आज मुझे अपनी चाहत बता दी। तुम्हारी चाहत में कोई खोट नहीं है, यह मुझे मालूम है। लेकिन मेरे बारे में कोई बड़ा फैसला लेने के पहले, मेरे बारे में भी जान लेना चाहिए था। लेकिन तुम बहुत भोली हो, अपने जैसा ही वक्त का मारा समझ, मुझसे दिल लगा बैठी। लेकिन मैं निर्मोही नहीं हूं। और तुम्हें अंधेरे में रखना नहीं चाहता हूं। सच सच सब कुछ बता देना मैं अपना फर्ज समझता हूं,तो सुनो,” रचना , तुम्हारा दिल जितना साफ़ है,मेरा उतना ही दागदार है, स्कूल जमाने से मेरा जो बिगड़ना शुरू हुआ, कॉलेज तक आते आते वेश्याओं के कोठे तक जा पहुंचा। इसी दौरान एक बार पुलिस के हाथों जा चढ़ा और सप्ताह दिन तक पुलिस हवालात में पड़ा रहा। घर वालों ने जिस लड़की के साथ मेरी शादी तय कर दी,उसी ने मुझे रिजेक्ट कर दिया और जो लड़का मेरा बचपन का दोस्त था उसके साथ उसने शादी कर ली। मै अपनी ही शादी में एक बाराती की तरह खड़ा देखता रह गया। उस घटना को मैंने जीवन का एक सबसे बड़ा हादसा समझा और आत्महत्या करने को निकल पड़ा। लेकिन कम्बख़त दवा भी नकली निकली। मुझे मरने भी नहीं दिया। लोग देखते ही कमेंट करते” मास्टर का बेटा है, पर मरना भी नहीं आता”जहां भी जाता,लोग फब्तियां कसते, मज़ाक उड़ाते। जीवन जंजाल सा लगने लगा। बोकारो मेरे लिए बेकार हो चुका था। तभी एक रात मैंने घर छोड़ दिया, एक भीषण घोषणा के साथ कि इस जीवन में फिर कभी इस घर में वापस लौट कर नहीं आऊंगा!”
सारी बातों को मेघराज ने एक पत्र में उतारा, और सुबह उसे एक बच्ची के हाथों रचना के पास भेजवा दिया। और खुद बाजार चला गया। दयावती के लिए कुछ जरूरी सामान लाने थे।
दो दिन बीत गया। रचना का कोई जवाब नहीं आया। सच्चाई जान रचना ने मुंह मोड़ ली, इरादा बदल लिया। अच्छा किया। यह सोच मेघराज को भी अच्छा लगा। उस जैसे दागदार से भला कोई कैसे प्यार कर सकता है! उसने स्कूल जाना छोड़ दिया। दयावती से कहा” मौसी,मैं कुछ दिनों के लिए बाहर जा रहा हूं। बहुत जल्द लौट आऊंगा!”और इसी के साथ घर से निकल पड़ा था। दागदार अतीत ने एक बार फिर मेघराज को भगोड़ा बना दिया।
दो दिन बाद दयावती को परिस्थिति का भान हुआ। सामान लपेटे एक अखबार पर दयावती का ध्यान गया। अखबार में मेघराज की तस्वीर छपी थी और नीचे लिखा था” बेटे मेघराज, तुम जहां कहीं हो,फोरन घर लौट आओ, तुम्हारी मां तुम्हारी याद में मरी जा रही है। खाना पीना छोड़ दिया है उसने!”तुम्हारा पिता – रामलाल कुडमी!”
“तो यह छलिया भी गया हमें छोड़ कर!”दयावती दम साध कर बैठ गई थी। उसी वक्त रचना पहुंची थी, उसके पास। बोली”काकी, मेघराज कहां है? मैं उससे मिलना चाहती हूं। दो दिन से वह स्कूल भी नहीं गया। आज एक बच्ची ने उसका पत्र दिया मुझे। पढ़ा तो दौड़ी चली आई!”
“मिल सकोगी उससे!”दयावती ने अखबार उसकी तरफ बढ़ा दिया”बेटी, हमारे जीवन में पता नहीं क्या लिखा है, सोचा रामू मिल गया!”वह सुबक पड़ी थी।
और दो माह बाद रचना का पत्र मेघराज के हाथ में था”मेघराज, मेरे पास वक्त बहुत कम है, मेरी तस्वीर और शादी से संबंधित तुम्हारे घर वालों का एक पत्र हमारे पिता को मिला। वह पत्र क्या आया, घर में जैसे कोई बड़ा धमाका हो गया। धमाके की गूंज से रामपुरा गांव के शर्मा समाज हिल उठा है। भाई आग बबूला हो उठा है। बार बार मुझे जलाने की बात कर रहा है। बाप मेरे उठाए कदमों की समीक्षा नहीं कर पा रहा है। परन्तु वह चाह कर भी चुप नहीं रह सकता था। तुम्हें मालूम है,वह गांव समाज का प्रधान भी है। जाति समाज की बात भी थी। पंचायत बैठी,तय हुआ मेरे इस प्रचंड अपराध के लिए सर मूड़ा कर गांव समाज से बाहर कर दिया जाए। दयावती काकी जैसी दर्जनों औरतों ने पहली बार सभा में हस्तक्षेप की, और आवाज उठाई” हम रचना के साथ अन्याय होने नहीं देंगे,उसका प्रेम अपराध नहीं है, अगर अपराध है तो, मरद जात अपनी दूसरी शादी न करने का हमें वचन दें , फिर रचना के बारे में फैसला करें!”औरतें किसी भी सूरत में पीछे हटने को तैयार नहीं थीं। पंचायत में जलील होने से बच गयी। लेकिन बाप का घर छूट गया। अभी दयावती काकी के घर में पनाह मिली है। उसके शरण में हूं। पर कब तक?
— तुम्हारी रचना!”
और मेघराज फिर एक बार घर से भागा।
— श्यामल बिहारी महतो