अलविदा सावन
सावन जाते जाते भी सबको आंखे दिखा रहा है
प्रकृति से मत करो मुकाबला यह समझा रहा है
फंस जाओगे अपने ही बनाये जाल में एक दिन
क्यों अपने आप को बेकार में उलझा रहा है
बह गई सड़कें रास्ते बह गए खेत खलिहान
मन्दिर कई ढह गए ढह गए कई मकान
सावन की खुशी मातम में बदल गई
बस्तियां थी जहां आज हैं वहां खंडहर सुनसान
अब के बर्ष यह सावन बहुत तबाही कर गया
कोई पानी मे बह गया कोई दब कर मर गया
तबाही का मंजर था हर तरफ मौत थी खड़ी
प्रकृति की मचाई तबाही देख कर डर गया
किसकी खता है कौन है इसका जिम्मेवार
आदमी की बढ़ती भूख पर प्रकृति का है यह प्रहार
पर आदमी कभी नहीं मानेगा अपनी हार
ठहरायेगा दोषी प्रकृति को उसी पर फिर करेगा वार
— रवींद्र कुमार शर्मा