कृषक
अगर उससे कोई पूछे ,
जिन्दगी का अर्थ,
उसका उत्तर सिर्फ एक रोटी होगी।
जिस लेखनी से लिखी गई ,
उसकी पुती हुई किस्मत,
सोचो यार कलम विधिना की,
वो कितनी मोटी होगी ।
जेठ कि दुपहरी हो,
घाम हो कुँवार का ,
पूस की काँपती सी रात हो
भादों की या फिर बरसात हो ।
सब कुछ भर लेता है अपने शरीर मे।
साल बिता देता है एक ही चीर मे।
खुद भूखा रह करके भोजन उगाता है।
सबको खिलाने वाला भूखा सो जाता है ।
हाय देखिये,
बिडम्बना मानवता की,
पत्थर पूजे जाते हैं,
कुत्ता बिस्कुट खाता है ।
मगर सबको अन्न देने वाला ,
कृषक,
ग्रामदेवता,
उपेक्षित ही जीता है,
उपेक्षित मर जाता है ।
— डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी