‘अधजल गगरी छलकत जाये’
मुंगेरी अपने ताऊ जी के साथ शहर आया था।
होशियार, बुद्धिमान, परिश्रमी विद्यार्थी मुंगेरी को उच्च शिक्षा के लिए ताऊ जी शहर ले आये थे।
महाविद्यालय में उसके आते ही उसका चंपू चेहरा, सीधी- साधी वेशभूषा देख सब हंसने लगे।
नमस्ते, अभिवादन का जवाब मजाकिया अंदाज में दिया गया।
आत्मविश्वास से सराबोर मुंगेरी कुछ न बोला।
अपनी कक्षा में जाकर किताब पढ़ने लगा।
‘अधजल गगरी छलकत जाये’ जो भी आता, उसे गंवार, अनाड़ी समझ ज्ञान छलकाता।
मन ही मन मुस्कुराता रहा मुंगेरी। अध्यापक ताऊ जी ने पहले ही उसे सचेत कर दिया था,
” किसी के मुंह न लगना। तुम यहां पढ़ने के लिए आये हो।
कुछ बनने के लिए। शहरी प्रदूषित हवा से अपनी अस्मिता, संस्कार, सभ्यता बचाये रखना।”
कक्षा में अध्यापक जी के आते ही खुसर पुसर शुरू हो गयी।
जिन्हें पढ़ना था, वे भी कुछ समझ नहीं पा रहे थे। परेशान से अध्यापक जी ने डांटने का अभिनय किया,
पढ़ाना छोड़, खुद से ही पढ़ने के लिए कह दिया। माजरा समझते देर न लगी मुंगेरी को।
समझ गया, धमाचौकड़ी को यही अध्यापक जी प्राइवेट ट्यूशन पढ़ाते हैं।
एक-एक कर कई सवाल पूछता गया वह।
अध्यापक जी की भौंहें तन गयी। पर कुछ न बोल पाये।
पता था, ईमानदार ताऊ जी का भतीजा हैं। अब तक कक्षा का शोरगुल भी थम गया था।
सब समझ गए थे, मुंगेरी की होशियारी के आगे दाल नहीं गलेगी उनकी।
“जो पढ़ना नहीं चाहते, बाहर चले जाएं।”
अचानक मुख्य अध्यापक जी को क्लास में देख अध्यापक जी सकपका गए।
ताऊ जी ने मुंगेरी का संदेशा पहुंचा दिया था।
जो पढ़ना चाहते थे, उनके मुख कमल दमकने लगे।