सभ्यता खड़ी हो गई है!
हमारी मनुष्य जाति की प्रायः तीन अवस्थाएँ प्रचलन में हैं :1.बैठना 2.लेटना और 3.खड़े रहना। एक और चौथी अवस्था भी कभी – कभी देखी जाती है ;वह है उकड़ू बैठना ,जिसे बैठी हुई अवस्था का ही एक उपभेद कहा जा सकता है। प्राइमरी स्कूल में मुंशी जी इसका प्रयोग हमें आदमी से मुर्गा बनाने में कर लिया करते थे। यह बैठी और खड़ी हुई अवस्था का एक मिश्रित रूप है ।न पूरी तरह बैठे हुए और न पूरी तरह खड़े हुए।मनुष्य ही एकमात्र ऐसा जंतु है ,जिसे अपनी सभ्यता को दिखाने का शौक है। जिसे विभिन्न रूपों में वह प्रायः दिखाया करता है।
मानव की सभ्यता एक ऐसा कपड़ा अथवा आवरण है ,जिसे वह कभी भी बदल सकता है। उतार कर फेंक सकता है। इसलिए उसका निर्वसन अथवा नंगा होना या होते चला जाना भी उसकी विकसनशील सभ्यता का एक रूप है। सभ्यता के इस रूप पर यदि विस्तार से विचार किया जाएगा तो उसकी देह पर सूत का एक धागा भी नहीं बचेगा और वह सभ्यता के एवरेस्ट पर ही बैठा हुआ दिखेगा। फिलहाल हम मानवीय सभ्यता के इतने ‘उच्चतम स्वरूप’ की समीक्षा करने नहीं जा रहे हैं।पहले उसकी उन्हीं साढ़े तीन अवस्थाओं पर विचार विमर्श ही समीचीन होगा।
मनुष्य की सभी साढ़े तीन अवस्थाएं उसके जीवन भर काम आने वाली हैं।खाते,पीते, चलते -फिरते,सोते, काम करते हुए इन्हें स्व सुविधानुसार वह काम में लेता रहता है।सामान्यतः बैठने की अवस्था उसके जाग्रत जीवन की ऐसी प्रमुख अवस्था है ,जो अधिकांशत: काम आती है।तभी तो किसी के द्वारा कहीं जाने पर लोग उसके स्वागत में यह कहते हुए देखे सुने जाते हैं कि आइए बैठिए, पधारिए ,तशरीफ़ रखिए।इस काम के लिए प्रकृति ने प्रत्येक स्त्री -पुरुष को एक नहीं दो -दो भारी – भरकम विशेष अंग भी पहले से ही उपहार में दे दिए हैं कि शिकायत की कोई गुंजाइश ही नहीं छोड़ी कि कोई यह कहकर शिकायत कर सके कि हमारे पास तो थे ही नहीं जो बैठेते या पधार पाते या तशरीफ़ रख पाते। आप अच्छी तरह से समझ ही गए होंगे कि वह बहुमूल्य दो अदद क्या है?जिन्हें हम जैविक विज्ञान की भाषा में ‘नितंब’ की संज्ञा से अभिहित करते हैं। अगर प्रकृति ने ये दोनों नहीं दिए होते तो शिकायत का पूरा अवसर होता। पर अब आपको वह अवसर नहीं दिया गया है । इसलिए शांतिपूर्वक ढंग से बैठना सीख लीजिए। पर कहाँ ? आपको बैठने की फुरसत ही कहाँ है? आप तो इतनी जल्दी में हैं ज़नाब कि खाना ,पीना क्या ;मल -मूत्र विसर्जन तक का समय नहीं हैं आपके पास !सब कुछ खड़े – खड़े ही निबटा लेना चाहते हैं!बैठने तक की फुरसत नहीं।वाह रे इंसान।इंसानों और गधे -घोड़ों,सुअरों, कुत्ते,बिल्लियों में कोई भेद ही नहीं रह गया!
दावतों में शांति से बैठकर भोजन करने के स्थान पर ‘बफैलो सिस्टम’ ईजाद कर लिया।यहाँ तक कि मूत्र विसर्जन के लिए खड़े -खड़े वाला बड़ा – सा प्याला दीवाल पर लटका लिया और शेष काम के लिए कमोड ने उटका लिया। यह भी सम्भवतः असुविधाजनक होता ,अन्यथा इसे भी गाय- भैंस की तरह ‘खड़ासन’ में ही निबटाता !इस मामले में वह भूल बैठा की उसकी देह – संरचना की माँग ‘बैठासन’ की है ,’खड़ासन ‘ की नहीं।
लेटकर या बैठकर आप टहल नहीं सकते। यह ठीक है। किंतु जीवन के बहुत से काम ऐसे हैं ,जिन्हें बैठकर किया जाना ही सुविधाजनक है।परंतु कल -कारखानों में जिन मशीनों पर बैठकर काम करना उचित होता ,वहाँ भी ‘खड़ासन’ में काम करने वाली मशीनें बना डालीं।खड़ी हुई अवस्था में मानव को अपेक्षाकृत अधिक और जल्दी थकान होती है ,इस तथ्य को नजरंदाज कर दिया गया। आज वैज्ञानिक रूप से भी यह प्रमाणित किया जा चुका है कि खड़े -खड़े काम करने की अपेक्षा बैठकर काम करने से व्यक्ति अधिक समय तक जीता है। वह दीर्घायु होता है। माना कि शिक्षण कार्य बैठ या खड़े होकर दोनों तरह से किया जाना संभव है। किंतु लिपिकीय कार्य खड़ी अवस्था में करना न उचित है और न सुविधाजनक ही है। ट्रैक्टर ,बस, कार ,ट्रेन ,हवाई जहाज आदि की ड्राइविंग बैठकर ही की जानी है ,की भी जाती है।हो न हो कि ऐसी भी खोज कर ली जाए कि ये वाहन भी खड़े खड़े चलाने वाले बना दिए जाएँ। हल – बैलों से खेत की जुताई खड़े हुए ही सम्भव है। यही उसकी आवश्यकता भी है। कुम्भकार का चाक, मोची का जूते गाँठना यदि बैठकर ही करना है तो हैंडपंप खड़े होकर ही चलाना होगा।यह कार्य की प्रकृति है। किंतु शरीर -जैविकी की वैज्ञानिकता छोड़कर खड़े होकर कार्य करना सर्वथा अनुचित ही होगा।
हम मनुष्य ‘खड़ासन’ के इतने कुशल विशेषज्ञ हैं कि अपनी बोली -भाषा को भी खड़ी कर दिया और वह खड़ीबोली बना दी गई।हमारी प्राचीन भाषाएँ : जैसे- ब्रजभाषा,अवधी,भोजपुरी, मैथिली,कन्नौजी, हरियाणवी, राजस्थानी आदि बैठा दी गईं या सुला दी गईं। सब कुछ खड़ा-खड़ा, खड़ी -खड़ी,खड़े – खड़े। दूल्हा -दुल्हन भी न भाँवरें लेने लगें कहीं घोड़ी पर चढ़े -चढ़े!
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्’