कहानी – पानी की बेड़ियों में जकड़ा गांव
यह पानी की बेड़ियों में जकड़ा गांव है। इस पानी की दीवार ने ज़मीन में ही सरहद नहीं खोदी है, इसने इंसानों के जिस्मों में रात दिन उगती ख्वाइशों के लिए भी सरहद खोद डाली है। वे इंसान अब अपने तुच्छ स्वप्नों का बोझ उठाए उस दीवार से आगे नहीं जा सकते। जब दुनिया के लोग अपनी नींद में स्वप्नों का दरबार सजा रहे होते और उस दरबार में राजा बनकर दुनिया की खुशहाली के लिए नए-नए फरमान जारी कर रहे होते तब ये बचे हुए लोग अपने स्वप्नों में पानी में डूबी खेती को बचाने के लिए पानी में डुबकियां लगा रहे होते। इसे ही सरकार या विकासवाद की लहरें कहते हैं। 20 परिवारों का अभी 2022 होने तक भी गांव कच्चे मकानों में एक आस के साथ जी रहा है। कभी उनके पड़ोस में फैली पौंग बांध से बनी झील में जुनून की लहरें उठती हैं तो कभी उनके पड़ोस की माटी पानी में सो जाती है जैसे उनकी इच्छाएं सोई हों।
सीता राम गेहूं के दाने फेंकता जा रहा था, खेत में पांव रखते ही उसके रबड़ के जूते गीली मिट्टी में फंस रहे थे और खप्पच-खप्पच की आवाज़ कर रहे थे। बस इसी फसल के सहारे सीता राम की जिंदगी के दाने भी उग रहे हैं। कभी उसकी नजऱ दूर तक बह रही ज़मीन पर पड़ रही थी, पर उस ज़मीन की सरहद तो कुछ ही कदम तक है। उसके बढ़ते कदम एक दम से रुक गए, आगे ज़मीन पर एक ओर अभी बड़ा सा तालाब पानी से भरा पड़ा था। वह मन ही मन बुडबुड़ाया, ‘‘अभी सूखा नहीं इस टोबे का पानी हर साल अंत तक सूखता है।’’
45 वर्ष पहले जब यह बांध बनने लगा तो उनकी ज़मीने छिनने का फरमान आ गया, निशान लग गए शाम को पूरे गांव के बीस घरों के लोग उसके बापू हीरा राम के पास पहुंच चुके थे। उसके बापू बोला था, ‘‘अब अगर बांध बनना तह हो गया है और सरकार ने हमारी ज़मीने दूसरे प्रदेश राजस्थान में तह कर दी हैं तो फिर आप लोगों को एक ही बात पर मोहर लगानी है कि दूसरे प्रदेश की ज़मीन को सवीकार करो या फिर उसे अस्वीकार कर दो पर अगर वहां नहीं गए तो फिर कहां रहेंगे, यह सब तो अब पानी में डूबने वाला है। फिर क्या पानी में तैर कर जिंदगी बिताएंगे?’’
गांव के श्यामू चाचू ने बीच में ही ज़ोर से बोलना शुरू कर दिया था, ‘‘सिर्फ हमारा गांव न डूबेगा, बाकी सब डूब जाएंगे।’’ गांव का हरिया बोला था, श्यामू, क्या बात कर रहे हो?’’
श्यामू बोला, ‘‘आप लोगों ने सिर्फ निशान देखे यह नहीं देखा कि हमारे घर उन निशानों से ऊंचाई पर हैं मतलब बांध में चाहे जितना मर्जी पानी भरे, हमारे गांव के घर पानी में न डूबेंगे। जिन परिंदों को अपनी माटी से प्यार होता है वे वहीं घौंसले बनाते हैं।’’
हलदू घराटी ने साफ कह दिया, ‘‘संरपंच जी, मेरा घराट तो डूब जाएगा पर घराटी की जात न डूबेगी, मैं चाहे कहीं और काम करूं पर रेगिस्तान की माटी में घराट नही चलते, मेरे बुजुर्ग यहीं पर पैदा हुए यहीं पर मर मिट गए, मैं यह जगह नहीं छोड़ सकता।’’
पूरे गांव ने एक ही रट लगा ली थी कि बस उस दूसरे प्रदेश के सूखे बियाबान में पहाड़ी पौधे न उग पाएंगे, यहां चाहे पानी में डूब जाएंगे पर अपने लिए हवा ढूंढ ही लेंगे। बस सभी ने यह मन पक्का बना लिया था कि वे गांव न छोड़ेगे।
बीबीएमबी के सामने फरियादों का ढेर इकट्ठा हो गया था। श्यामू फिर सबसे आगे खड़ा था। ‘‘साहब, बस एक बात तो पक्की है कि हम में से कोई गांव न छोड़ेगा बाकि आप कृपा करें तो गुजर बसर भी हो जाएगा।’’
साहब बोले थे, ‘‘भई, यह अपनी तरह का पहला मामला है आप लोगों की ज़मीन, घर अब बोर्ड के नाम हैं, और तुम्हें जो दूसरे प्रदेश में ज़मीनंे मिली हैं उन पर तुम्हारा ज़ल्दी कब्जा न हुआ तो फिर वे भी हाथ से निकल जाएंगी, दूसरे प्रदेश में कहां कानूनी लड़ाइयां लड़ोगे।’’
बड़ी देर की बातचीत के बाद एक ही फरमान हुआ था, ‘‘हम तुम्हारे गांव को सदा के लिए भूल जाएंगे, वैसे भी वह गांव पानी में कभी नहीं डूबेगा। न कोई तुम्हारे घर तोड़ेगा पर तुम आज से उस गांव में जबरदस्ती कब्जा करने वालों में गिने जाओगे न तो कोई वहां कोई निर्माण करेगा। क्योंकि हम घर डूबो सकते हैं, तोड़ नही सकते, न कोई बिजली, न पानी मिलेगा।’’ बड़ा अधिकारी फिर हंस दिया था, ‘‘अब फैसला तुम्हारे हाथ है। गांव जिस हालात में अभी है वैसा ही रखना पडे़गा, न कोई बांध की ज़मीन पर पानी उतरने पर खेती करने की सोचेगा, हां मछली पकड़ने के लाइसेंस बनेंगे, वे भी यहां के निवासियों को।’’ दूूसरे दिन नेता जी का भी आना हुआ। वोट बनाने वाले तो कुछ महीने पहले ही सभी के नाम लिख गए थे।
विधायक बोला था,‘‘विधायक के बस में कुछ नहीं है केन्द्र सरकार और राज्य सरकार का समझौता है भई, हम अब क्या कर सकते हैं, तुम्हंे जमीने न मिली होती तो बात आगे पहुंचाते, फिर भी मैं आपकी बात सरकार और बीबीएमबी के अधिकारियों के आगे रखता हूं।’’
एक बार सबके हौंसले जवाब दे चुके थे कि अब क्या फैसला करें। शाम को फिर सब सरपंच के घर पर इकट्ठा हो चुके थे, ‘‘आखिरी बार अपना फैंसला सुन लो,’’ सरपंच सीता राम ने धीमी रोशनी में कहा, ‘‘जितने हाथ खड़े होंगे, उन्हीं के हक में मुहर लग जाएगी।’’
हरिया, श्यामू, हलदू और उसके बापू हीरा राम के हाथ खड़े हो गए थे। बाकी सबके हाथ नीचे ही थे। श्यामू चीख पड़ा था, ‘‘तुम दूर प्रदेश में जाओगे, अपने रिश्तेदारों और इस माटी को छोड़कर, मैं कहता हूं इस बरसात तक रहकर देख लो, जब गांव पानी में डूबेगा नहीं तो इन घरों को छोड़कर वहां क्या करेंगे, तुम अपनी मां के नहीं हुए तो वहां किस को मां बोलोगे।’’ सरपंच ने श्यामू को शांत रहने को कहकर टोक दिया। ‘‘भई श्यामू सब का फैसला अपना होना चाहिए, कल को यहां सैकड़ों मुसीबतें आएंगी तो फिर कम से कम एक दूसरे को कोसेगे तो नहीं।’’
आखिर सब की किस्मत को बड़े अजगर ने जकड़ लिया था या फिर उनकी किस्मत में यही होना था। वह एक फैंसला और अब 45 वर्ष बीत जाने के बाद उनका गांव न तो कभी डूबा और न ही किसी ने उन्हें भगाया, बस उन्हें जैसे यही सजा मिली हो। सीता राम ने बचपन से एक लंबा सफर तह कर लिया है। हलदू घराटी तो चला गया किसी ओर ग्रह पर बस जाते-जाते कह गया था कि वह भगवान से यही मांगता कि अगले जन्म में कभी किसी नदी के पास न बसाना। श्यामू चाचू ने भी जिंदगी घिसट-घिसट कर जी ली है, यही नहीं पूर बीस परिवारों के परिवार फैले थे ठीक झील की तरह जो हर बरसात में उनके गांव की सरहद को मिटा देती है और भूखी डाइन की तरह जीभ लपलपाती है। बस वही घर है ठीक वैसे के वैसे कईयों के स्लेट उखड़ गए हैं कईयों के दासे टूट गए हैं, कुछ ने टिलपाल ढक दिए हैं शर्त के अनुसार बस सीमेंट और कंक्रीट नही लग सकता, मिट्टी पोतो दीवारों पर यह फिर कहीं से बांस लाकर स्लेटों को ठीक करो, न बिजली, पानी के नाम पर एक हैंडपंप है और एक कुआं है।
क्या-क्या नहीं देख उसने अब तक, कोई बीस साल पहले वोट बना गए थे, बस वोट ही डाल सकते हैं बदले में सरकारें को उनके लिए मजबूर हैं वे भला क्या कर सकती हैं।
सीता राम और श्यामू चाचू के बेटे शंकर ने मचान के बाहर आग जलाई है, ताकि वे अपने इन नाजायज़ खेतों से गेंहू को सही सलामत काट सके। जैसे ही सर्दियों की शुरूआत में बांध का पानी कम होने लगता है वैसे ही इस गांव के परिंदे उस ज़मीन के टुकड़ांे पर अपने हिस्से के दाने फेंकने शुरू कर देते है दूर तक लंबे खेतों का उभार नज़र आने लगता है टैªक्टर भी दौड़ते है और बस गेहंू की ढालियों का निर्वाधा साम्राज्य इन वक्त के मारे परिंदों को एक आस देने लगता है वरना इस अवैध गांव में और कोई काम नहीं। हां पशुओं को चराने के लिए आप बेहले हैं वे भी साल के कुछ महीने ही वरना पानी से भरी चरागाहों में घास को कौन ढूंढेगा।
गांव के लड़के लड़कियां सुबह नाव पर सवार होते और स्कूल जाते कुछ ने तो कॉलेज तक अपनी सरहद खींची हैं। कुछ की शादी हो गई तो फिर इस गांव में नहीं आए और लड़कियों को 18 साल के बाद जल्दी ही हाथ पीले करके एक नए जहान में भेज दिया जाता।
सीता राम के घर पर आज फिर महफिल लगी थी। खिम्मी चंद ने बात शुरू कर दी, ‘‘सीता राम जी आप को गांव का मोहतरब व्यक्ति मानते हुए मैं यह कह देना चाहता हूं कि मैं अपने बेटे की जिद् के सामने नतमस्तक हो चुका हूं उसकी जिद् यही है कि शादी के बाद वह इस नरक में वापिस न आएगा और बहू को तो इस गांव की शक्ल न दिखाएगा। वैसे सच कहंू तो रिश्ते पक्का करने के वक्त हमने लड़की के घर वालांे को जबान दी थी, वरना शादी की बात आगे न बढ़ती। अब इससे पहले भी तो राणू के बेटे की शादी भी तो इसी शर्त पर हुई है। हमने तो अपना वक्त काट लिया पर ये अगली पीढ़ी हमारी तो नहीं सुनेगी।’’
सीता राम का मन ठीक वैसे फड़फड़ाने लग पड़ा है जैसे उसे किसी न किसी से उसके आस पास की डायन झील में धक्का दे दिया हो और वह सुबह तक तैरने के बावजूद भी किनारे तक नहीं पहुंचा था। अब क्या उसकी जिद् सचमुच में ही इस झील का निवाला बनेगी। वही झील जो उनका सब कुछ निगलने के बाद एक नया सवाद चख चुकी है। न वह किसी को रोक सकता था न अब कोई उसकी सुनेगा। उसका अपना बेटे ने भी तो यही रट लगाई है, ‘‘नहीं बापू, अब मिंटू को मुझे कस्बे के स्कूल में डालना ही होगा, वह यहां झील के पार के सरकारी स्कूल में कुछ नहीं सीख रहा, घंटे भर में सफर करके झील पार करके और बरसात में तो दो तीन महीने तो स्कूल की शक्ल नहीं और कहीं ऐसा वैसा कुछ हो गया तो….।’’ सीता राम कहना चाहता था- बेटा यह झील कब से हमारे लिए खतरा बन गई । यह जिंदा लोगों को नहीं मारती, उन्हें सिर्फ तड़फाती है, वैसे सड़कों पर वाहनों से बुरी तो यह झील भी नहीं है। आखिर सीता राम का बेटा बहू और पोता निकल गए थे सूखी ज़मीन के घरोंदे में निवास करने।
चार-पांच वर्षो में ही गांव खाली हो चुका है। खिमी चंद का बेटा, सोहण के दोनो लड़के तो पहले ही जवाली में बस गए हैं। कहने को गांव में केवल सीता रात, सोहण, खिमी चंद, शंकर और भगतू बचे हैं।
बरसात ने इस बार कुछ सोच लिया था। पानी खेतों को निगलता हुआ आसपास ठाठे मारने लग पड़ा था।
बूढ़े सोहण को रात को दमे का दौरा पड़ा और वह चल बसा। सुबह पूरे टापू वाले गांव में चार आदमी भी इकट्ठे नहीं हुए, सीता राम ने सबको अपने फोन से जानकारी दी, पर भरी बरसात में कौन समुद्र जैसी झील को किश्ती मे पार करके पहुंचे। पंडित ने भी जवाब दे दिया। सीता राम, खिम्मी चंद और भगतू ने बरसात के थमने तक कुछ लकड़ियां इकट्ठी कर ली थी। सोहण के दोनों बेटे दूर प्रदेशों में हैं उन तक खबर जब तक पहुंचती, तब तक शाम होने वाली थी। मात्र दस-ग्यारह लोग ही पहुंचे सोहण के क्रीया कर्म को। इस घटना के बाद सीता राम के छप्पर के ऊपर हकीकत का बादलों का जमावड़ा हो चुका था, वे गरजते तो ऐसा लगता कि उस पर हंस रहे हो, ‘‘वाह भई सीता राम, देखा तुमने अब तक भी तेरी जिद् नहीं टूटी तो फिर कब टूटेगी। किश्ती की पहचान तब तक होती है जब वह झील या दरिया के पानी के गले से लिपटी रहेगी और तु न अब घर का रहेगा न घाट का, यह तेरी ही जिद् थी न, तब तो तेरी नसों में खून वैसे बहता था जैसे नदी पहाड़ो में दोड़ती है पर अब वे बर्फ की झील सी ज़मने लग पड़ी है। क्या सीख दे पाएगा लोगांे को, समाज को, तेरे सब साथी बरसात से डरकर तिरपालियां ओढ़े निकल गए हैं, अब तू भी अपना बोरी बिस्तर उठा ले। यहां अब केवल पानी का राज होगा।’’
सीता राम के मन के अंदर द्वंद्व की एक नई झील बन बैठी थी जिसमें कभी वह तैरने लगता तो कभी डूब जाता। ‘‘अब वह क्या करे, वह केवल आखिरी बंदा है जो इस बर्फीले टापू से लिपटा है और इधर उसकी सांसों की गिनती ईश्वर कभी भी भूल सकता है।’’
वह चुपचाप भगतू के पास निकल गया। जो अपने छप्पर में खाना बनाने की तैयारी कर रहा था। ‘‘भाई भगतू, सोहण के जाने के बाद हमारे हौंसले भी टूट गए हैं मैं तो कहता हूं कि चुपचाप रात के अंधेरे में चल पड़तं हैं अपने सगे संबंधियों के पास वरना यही मर खप गए तो लकड़ी भी नसीब न होगी।’’
भगतू हुक्के में चिलम लगाते बोला, ‘‘सीता राम बात तेरी सोलह आने सही है, न यह ज़मीन कभी हमारी थी न रहेगी। यह तो कोई भगवान के साथ हिसाब किताब था जो अब पूरा होने वाला है। वैसे सुख की इच्छा तो अब इस झील में डूबकर मन गई है तो फिर अब और नई इच्छा को गोद लेने की उम्र भी नहीं रहीं। जीवन इंसान को आसमान तक ले भी जाता है और काल की गर्त तक भी पहंुचा देता है। अब अगर हमारी औकात मर जाए तो फिर जिद् के अंकुर तो जल्दी ही सूख जाएंगे।’’
सीता राम बोला,‘‘ भगतू अंह बड़ी बुरी चीज़ है यह न होता तो क्यों रूकते हम यहां, तुम लोगों ने भी तो मेरी बात मानी जो यहां टिक गए।’’
भगतू बोला, ‘‘सीता राम, वो तो हमने अपने मां बाप को इस माटी के लिए मरते देखा था तो अपनी माटी में जीने मरने का भ्रम पाल बैठे हैं हम तो तब जवान थे, जो दिल में आ गया कि यह गांव बस अपना है तो अड़ गए। पर अब सब कुछ डूब चुका है न इरादे बचे है न हिम्मत। बस जब यह पानी ज़मीन को नंगा करता है तो खाली ज़मीन पर गेहूं हम तीनों इकट्ठे ही बीज लेते हैं। यही काम हमें कुछ पैसे और मकसद देता है। ’’
‘‘अच्छा अब दो ही रास्ते हैं कि यहां से चले जाएं और दूसरा यहीं पर मरने तक रहने की कस्म खा लें, सोच लो। अब बस आखिरी परीक्षा है इसके बाद भगवान हमारी ओर न देखेगा।’’
भगतू हंस दिया, ‘‘मैं तैयार हूं बस मेरी एक ही शर्त है कि मरने के बाद मुझेे आग नसीब हो जाए।’’
सीता राम बोला, ‘‘भगतू यही शर्त मैं भी रख रहा हूं। इस खीमी चंद की भी यही शर्त मंजूर कर लो।’’ और तीनों अपने -अपने छप्परों की ओर निकल गए।
सीता राम, खिमी चंद और भगतू ने नई जिद् की अंगुली पकड़ ली थी। कुछ ही वर्षों में पहले भगतू ने उडारी भरी, फिर खिमी चंद। उन दोनों के क्रीया कर्म को भी चंद ही लोग पहुंचे। अब सीता राम ज़िंदगी के आखि़री कुछ पलों को बड़ी कठिनाई से जी रहा था।
सीता राम के दोनो बेटे बड़े दिन तक अडे़ रहे कि वह उनके साथ चल पड़े वरना यहां अभी कोई और खबर देने वाला भी नहीं बचा है। वह बोलता, ‘‘हम तीनों ने कस्म खाई थी कि गांव को खाली न छोड़ेगे अब वे तो चले गए तो फिर मेरी जिम्मेदारी है।’’
इस पगलाए बुड्डे ने किसी की न सुनी और घिसट-घिसट कर जीने का निर्णय किया, ‘‘मुझे लकड़ी भी नसीब न हो तो कोई गम नहीं पर मेरी आखि़री सांस तक गांव आबाद रहेगा।’’ दोनों बेटे हार गए पर सीता राम ने कस्म न तोड़ी। अब मौत के इंतजार में इस टापू की ज़मीन को गले लगा कर बैठा है।
सीता राम ने सामान से लदी कश्ती का रस्सी खोली और चप्पू चलाने शुरू कर दिए। दूर किनारे पर पहुंचते ही उसने एक नज़र गांव पर डाली, गांव धुंधला सा दिखाई दे रहा था। ऐसी बरसात पहले कभी न देखी थी इस गांव ने, ऐसा लग रहा था जैसे ईश्वर कोई प्रपंच कर रहे हो और यह तो इस गांव को डूबो देंगे और इन परिंदों को कही ओर घोंसला ढूंढना होगा।
भरी बरसात में सीता राम की सांसंे फूलने लगी थी। मुसलाधार वर्षा हो रही थी। सीता राम अपने छप्पर के बरामदे के एक कोने में अपना बाण के मंजे पर ज्वरग्रस्त पड़ा था। उसने अपनी खबर की भनक भी अपने बिखरे परिवार को नहीं दी थी। इससे पहले उसका छोटा फोन बिना चार्ज के बंद पड़ा था। कभी -कभार उसके परिवार की कोई सदस्य फोन करता रहता और फसल के काटने के समय अपने उजडे़ गांव की ओर निकल आता पर इस बार तो उसका बड़ा बेटा दूर प्रदेश में था अैर छोटा सेबों के सीजन के व्यापार के लिए रोहडू निकल गया था। वैसे भी अप्रैल मई के बाद फसल कटने के बाद ये ज़मीन मात्र आवारा पशुओं के लिए चरागाहें या फिर तलवाड़ा हाजीपुर के खानाबदोश भैंस पालकों की जागीर बन जाती है जो भैंसे चराते हैं और दूध घी को आसपास बेचकर फिर बरसात में ज़मीन के डूबने पर वापिस निकल जाते हैं।
सीता राम के आसमान ने सुबह से बरसने का प्रयोजन रचा था। सीता राम बुखार से तप रहा था अब इस उजाड़ गांव में किसके पास जाए वह चलने में असमर्थ था, बारिश कभी तेज तो कभी थम रही थी। अब अगर वह ठीक होना चाहता है तो उसे पानी से घिरे इस टापू से कस्बे की ओर निकलना था ताकि वह दवाई बगैरा ले सके। वह लगभग घिसटते हुए अपनी नाव तक पहंुचा। उसने प्लास्टिक अपने शरीर पर ओढ़ा हुआ था । वह अभी नाव में बैठा ही था कि ऊपर काले बादलों ने उसका पीछा करना शुरू कर दिया। आजतक ऐसे ही कई बादलों की बारातें देखी हैं उसने। बादल गरजे,‘‘ सीता राम, कहां जा रहे हो अपनी ज़मीन को छोड़कर इस पानी के सागर की ओर?’’
वह चप्पू तो चलाता पर हवा का वेग उसे उतनी ही पीछे सरका देता, चहु ओर धुंध का साम्राजय फैल गया जैसे उसे भी अदृश्य करने पर तुला हो। भीषण तुफान उसे वापिस लौटने की चेतावनी दे रहा था और सीता राम अपने अचेतन होते शरीर में बचे प्राणों के बल से पानी में उठती लहरों से लड़ रहा था। उसे लगा कि मानो उसे उसकी किश्ती दूसरे घर पहुंचाना चाहती है। वे मुसलाधार बारिश के थप्पेड़ों संग हिचोले खा रही थी। जिस सफर को वह बचपन से हज़ारों बार कर चुका था वही सफर उसे भ्रमित कर रहा था। मन में जैसे एक नन्ही सी चिंगारी उठी और उसने नाव वापिस टापू की ओर मोड़ ली। पानी की बोछारों को धकेलती हवा ने उसकी नाव को पंख लगा दिए, नाव नन्हें बछड़े की तरह ऐसे भागी जैसे बछड़ा अपनी मां को देखकर भागता है। उसके मन ने कहा,‘‘यह बारिश आज मेरी मौत मांगने आई है, उपर से पानी बरस रहा हैै और उसके शरीर के अंदर आग जल रही है।’’ उसकी आंखें बंद हो रही थी। फिर मन ने कहा कि किश्ती को बोलूं बस अब पलटी मार दे किसी तुफान के थपेडे़ खाकर और इस अंधेरी सुंरग में वह कुछ पल छटपटा कर समा जाए। पर किश्ती ऐसा नहीं करेगी क्योंकि यह कोई समुद्र नहीं था जो किश्तियों को अपने निवाले बनाता है, पर इस वक्त वह सीता राम के लिए सागर से भी लंबा चौड़ा था जिसे पार करना अब मुश्किल था। उसकी आंखों में अनंत अंधकार का सागर बहने लगा था। शरीर जड़ हो गया था, आसमान से टपकती पानी की एक-एक बूंद चाकू की तरह उसे काट रही थी। उसके शरीर में नाम मात्र भी जान नही थीं न कहीं टापू का निशान था, न दूसरी ओर की ज़मीन के किनारे का। उसकी आंखें मुंद गई थीं। सुबह उसकी नाव किनारे के बिल्कुल करीब थी पर सीता राम का शरीर पत्थर बन गया था। किसी मछुआरे की नज़रों में आए सीता राम को उसी टापू वाले गांव के शमशान घाट पर जलाया गया था। उस टापू के उजाड़ गांव की सरहद पर बीबीएमबी वालों ने ज़मीन के मालिकाना हक का बोर्ड लगा दिया था-यह ज़मीन बीबीएमबी के अधिकार क्षेत्र में आती है।
— संदीप शर्मा