ओ कान्हा
हाथ थाम लो आकर मेरे,
कोई नहीं सहारा है।
मन कितना विचलित हो उठता,
ह्रदय सिसक कर रोता है,
जरा बता दे तू गिरधारी,
ऐसा ही क्यों होता है।
भीड़ भरी है इस दुनिया में,
लेकिन कौन हमारा है।।
जीवन इक अनमोल रतन है,
जैसे कोमल सी कलियांँ,
कदम बढ़ाऊंँ गर मैं आगे,
हर पथ पर रोके छलिया।
किस–किस को मैं व्यथा सुनाऊंँ
करते सभी किनारा हैं।।
बनकर दासी मैं चरणों में,
भक्ति भाव सम रम जाऊंँ।
शाम–सबेरे रज के कण–कण,
माथे मैं तिलक लगाऊंँ।
जगमग हो जायेगा जीवन,
बन के मेघ सितारा है।।
सब कुछ तो तेरे ही वश में,
तू ही है पालनहारी।
कैसी लीला रचते कान्हा,
हम पर पड़ जाता भारी,
ज्ञात तुम्हें है तेरे बिन अब,
होता कहांँ गुजारा है।।
— प्रिया देवांगन “प्रियू”