नींद और तोंद
नींद और तोंद उन्हीं को मिलती है जो भाग्यवान होते हैं। ये दोनों अधिक हो जाएँ तो कम किया जा सकता है, लेकिन न हो तो किसी बीमारी से कम नहीं है। गणित का नियम कहता है- जो होता है उसी में से घटाया जा सकता है। जो नहीं है उसके लिए अनुमान लगाना सबसे मुश्किल काम है। यह दुनिया अनुमान लगाने के पचड़े से बचने के लिए ही गणित से पिंड छुड़ाकर भाग रही है। अब देखिए न यहाँ एक तरफ देश दो जून की रोटी कमाने में तो वहीं दूसरी ओर आधा देश इसे पचाने में मरा जा रहा है। इन्हीं दोनों के बीच जो धंधा सबसे ज्यादा फलता-फूलता है, वह है नींद और तोंद का। इसे कैसे कम करें या ज्यादा इसी में लोग अपनी जेब ढीली करते जा रहे हैं। ये दोनों न होते तो कइयों के परिवार सड़क पर आ जाते। शुक्र है कि सोने वाली दुनिया और तोंद फुलाने वाले लोग कइयों की जीवन डोर अपने हाथ में थामे हुए हैं। अजगर की चाकरी और पंछी का काम इनके लिए सबसे प्रिय और आराध्य होता है। यानी आलस इनका परम देवता है।
पशु-पक्षी जगत सुबह जल्दी उठ जाता है। यह उनकी विशेषता है। इंसान देरी तक सोता है यह उसकी विशेषता है। देरी तक सोने के कई लाभ होते हैं मसलन दिन की दौड़-धूप से कुछ देर बचने, बेफिजूल की बतकही करने, जात-पात, लिंग, धर्म, भाषा की किचकिच से थोड़ी देर तक अधिक सुस्ता सकता है। वैसे भी यहाँ कौन सही समय पर जागता है? यदि वह सही समय पर जागता तो दुनिया में इतनी झंझट नहीं होती। लेकिन इंसान है कि जलेबीदार घुमाव भरी जिंदगी का आदी हो चुका है। सीधेपन से तो उसे अपच हो जाता है। वैजानिक दृष्टि से भी देखें तो लोग सोने के लिए तरसा करते हैं और हजारों-लाखों रुपया डाक्टरों और दवाइयों में व्यय कर डालते हैं और यह अवैतनिक उपदेशक लोग स्वाभाविक निद्रा को आलस्य और दरिद्रता की निशानी बतलाते हैं। ठीक ही कहा है-“घर की चक्की छोड़कर, बाहर पाहन पूजे जाएँ।” लोग यह समझते हैं कि हम आलसियों से संसार का कुछ भी उपकार नहीं होता। मनुष्य का आलस्य ही अविष्कारों की जननी है। वह ज्यादा चले न इसके लिए एक से बढ़कर गाड़िया बना लीं। परिजनों और परिचितों के घर जाना न पड़े इसके लिए मोबाइल बना लिया। खाना न पकाना पड़े इसके लिए स्वीगी और जोमाटो अपना लिया। लिखने से जिराक्स, चढ़ने से लिफ्ट-एस्कलेटर, पढ़ने से सोशल मीडिया, खेलने से वीडियोगेम और रोने से ग्लिसरिन आदि इसी आलस की देन है। ध्यान से देखें तो पता चलता है कि दुनिया के बड़े-बड़े नोबल प्राप्त आविष्कार आलस्य और ठलुआ-पंधी में ही हुए हैं। वाट साहब ने भाप शक्ति का आविष्कार एक ठलुआ बालक रहकर ही किया था। न्यूटन ने भी अपना गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत बेकारी में ही पाया था। लुई पाश्चर नहाने के आलस के चलते ही अपनी शादी भूलकर वैक्सिन की खोज में लगे रहे। थामस अल्वा एडिसन दुनिया को बत्ती देते उससे पहले ही पाठशाला ने उनकी बत्ती बुझा दी। यानी स्कूल से बाहर कर दिया। उन्हें लगा कि इसके बेफिजूल प्रश्न तो आलस से उपजे हैं। इस तरह आप किसी को भी ले लें सब आलस की महादेन हैं। इसीलिए कहते हैं दुनिया जाग-जागकर रोने से नहीं सो-सोकर मुस्कुराने से सुखमय बनती है। कम से कम जागकर झगड़े फसाद से बचने का छुटकारा मिलता है।
— डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त‘