बाकी है.. इस दुनिया में
डरता हूँ मैं
तुम से, तुम्हारी चेष्टाओं से
तुम भी डरते हो मुझ से
मेरी चेष्टाओं से
जग का सत्य है
एक दूसरे से डरना
सत्य असत्य से
धर्म अधर्म से
न्याय अन्याय से
ज्ञान अज्ञान से
त्याग स्वार्थ से
समता विषमता से
चलती है निरंतर विरोधी विकृति
अंत तक, जड़ता में,
जग में लय होने तक
भेद – विभेदों की मानसिक रचना
जारी रहती है जगत में
छिपाता है जीव यहाँ
अपने आपको, अपनी चीज़ों को
अपनी संपत्ति को
अलग – अलग है हमारी
जीने का ढंग, परंपरागत विचार
मनुष्य की हलचल से
साँप डरता है
वह डसने के लिए
अपना फण फैलाता है
मनुष्य भी डरता है
साँप को मारने के लिए
लकड़ी ढूँढ़कर लाता है
जहाँ विश्वास नहीं
फैलती है वहाँ शंका
सम्मिलित रूप है जिंदगी
एक दूसरे में जीना
बाकी है इस मानव समाज में
संकुचित रेखाओं को पारकर
विशाल जग में
अपने आपको देखना
बाकी है इस दुनिया में
अपने आप से, बिलों से बाहर
समतल पर कदम लेना
बाकी है इस जग में।