कविता

हंँस रहा है फूल हम पर

हंँस रहा है फूल हम पर,

पूछता है तूने क्या किया ?

इस जहांँ में पैदा होकर,

बोलो है किसका भला किया ?

धिक्कार है उस जिन्दगी पर,

जो न जग के काम आया।

हँसा फूल और फिर बोला,

सीखो की कैसे इस जग को,

मैंने है सुगंधित किया।

आगे मैं कुछ बोलता,

की मुझे फूल चुप रहने को कहा।

कहा रे नर तू स्वार्थी है,

सिर्फ अपने लिए ही सोचता रहा।

कहते हो हम श्रेष्ठ जीव हैं,

पर तूने है ये क्या किया ?

कहीं दंगा कहीं झंझट,

न चैन से है खुद रहा

न किसी को रहने दिया।

जिंदगी है क्या तू न समझ सका,

बस दौलत की चाह में

हर कुकर्म तू करता रहा।

इतना सुनाकर चुप न रहा,

आगे भी बहुत कुछ कहने लगा।

कहा अपना कब्र तू आप खोद रहा,

प्रकृति को भी तुम तबाह कर रहा।

काटा बहुत जंगल है तूने,

आज अपने किए का ही तो भोग रहा।

न समय से वर्षा है होती,

तनाव में किसान है जी रहा।

लूटने की होर मची है,

शोषण का धंधा चल रहा।

फूल था अपरिचित मुझसे,

मैं उसकी सब सुनता रहा।

अब शर्म आ रहा था मुझको,

दिल ने कहा क्यों मानव बना ?

यहांँ छल और प्रपंच है,

सोचा फूल ने ठीक ही कहा।

अगर जग को कुछ न दे सका,

तो समझो जीवन व्यर्थ ही रहा।

सोया मन अब जाग गया,

खुद को आज धिक्कार दिया।

जग को सुगंधित मुझको भी है करना,

दृढ़ निश्चय मैने भी किया।

आंँख मिलाया फूल से फिर,

फूल खुशी से झूमा मुस्कुरा दिया।

— अमरेन्द्र

अमरेन्द्र कुमार

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