मुक्तक/दोहा

दोहे

स्वेद कणों पर कीजिए ,  हमेशा तुम विश्वास ।
जीवन नाम संघर्ष का , कभी न छोड़ें आस ।।

यौवन पर मत रीझना  , चार दिनों का खेल ।
निकल गए तो पास हैं , फिसल गए तो फेल ।।

मुख के बाहर फूल हैं , या फिर भीतर खार ।
भाषा के व्यवहार से, पता चले संस्कार ।।

दुर्गम पर्वत के रास्ते ,हिम्मत से कर पार ।
खूबसूरत मंजर लिए ,उधर भी है संसार ।।

मौसम के संग बदल गया, जग का झूठा नेह ।
स्मृतियों में फिर  रह गया , बरसा झूठा मेह ।।

रात पूस की  सिसक रही , सिसक रहा मचान ।
हल्कू हो या अब का हो , वहीं का वहीं किसान ।।

कैसे कृषक चुकाएगा , बैंकों का ऋण सूद ।।
मिटटी के भाव बिक रहे  , फसलें सब्जी  दूध ।

पल में राजा रंक करें , रंक को दे दे ताज़
दुनिया में न समझ सका , कोई वक्त का राज ।।

साहब भरे नहीं पेट ,यह शब्दों का लाड़ ।
दो वक्त की रोटी का , पहले करो जुगाड़ ।

जाति धर्म से ऊपर उठकर , मानवता हित साध ।
अबोध जनों की पीठ पर , कभी न नारे लाद ।।

हाड मांस का महल यह , जाएगा इक दिन ढह ।
धरा यहीं रह जाएगा ,  यह तेरा सब संग्रह ।।

मतलब के इस दौर में ,  बदल गया है गांव ।
न ही शीतल हवा रही , न घनी बट की छांव ।।

देख सौहार्द  रो रहा , दौर समय का भांप । ।
छुपके छुपके डस रहे , ये आस्तीं के सांप

वंदन चंदन अभिनंदन से ,नहीं सुधरें हैं शठ । 
इनको चाहिए दोस्तों , लातें – घूंसे – लट्ठ ।।

विरही मन ने जब भरी , याद में ठंडी आह  ।
छत पर बैठी चांदनी , हंस कर बोली वाह ।।

अपनी अपनी धूप है , अपनी अपनी छांव ।
सबके अपने सफर हैं , सबके अपने ठांव ।। 

छत पर बैठी चांदनी ,रही कातती रात ।
रो रो सूखी विरहिणी ,लगे पिया नहीं गात ।।

लकदक पर्वत छोड़ चला,देकर हिम हेमंत ।
धरा को नव श्रृंगार दो,तुम आकर प्रिय वसंत ।।

संबंध चदरिया जगत में,  होती है अनमोल ।
मतलब के बाजार में  , कभी न इसको तोल ।।

सौहार्द की गलबहियां, प्यार धुलाता पांव ।
नहीं रही वो हस्तियां ,नहीं रहे वो गांव ।।

मतलबी यह संसार है, झूठा सब व्यवहार ।
‘दर्द’ परख के देख लो, सब रिश्तो का प्यार।।

हर पगडंडी मौन हुई , और खेत खलिहान ।
कृषि छोड़ मजदूर हुआ , जब से यहां किसान।।

चारणचारी बिक रही , देख सत्ता के हाट ।
यहां यहां यह हुनर है , वहां ठाठ ही ठाठ ।।

समय के दामन में सदा , पतझड़ और बहार ।
मिलता है हर बार यह , बदल के रंग हजार ।।

अन्तर्जाल के युग में, कैसा पसरा जाल ।
संचित नैतिक मूल्यों का, बनने लगा कंकाल ।।

राम के प्यारे संत के  कौन बिगाड़े काज ।
चलें वहां छल छद्म क्या , जहां राम का राज ।।

समय की बहती नदी को , कोई न पाया  रोक । 
तट बदलते रहते हैं , हर्ष विषाद और शोक ।।

छत पर बैठी चांदनी  , लगी सुनाने गान  ।
मुरझाए हुए अधरों पर , फिर तिर आई मुस्कान ।।

यति- रति और कामदेव , तितली -भंवरे -फूल  ।
वसंतोत्सव के जोश में , विरह गए सब भूल ।।

अशोक दर्द

जन्म –तिथि - 23- 04 – 1966 माता- श्रीमती रोशनी पिता --- श्री भगत राम पत्नी –श्रीमती आशा [गृहिणी ] संतान -- पुत्री डा. शबनम ठाकुर ,पुत्र इंजि. शुभम ठाकुर शिक्षा – शास्त्री , प्रभाकर ,जे बी टी ,एम ए [हिंदी ] बी एड भाषा ज्ञान --- हिंदी ,अंग्रेजी ,संस्कृत व्यवसाय – राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय में हिंदी अध्यापक जन्म-स्थान-गावं घट्ट (टप्पर) डा. शेरपुर ,तहसील डलहौज़ी जिला चम्बा (हि.प्र ] लेखन विधाएं –कविता , कहानी , व लघुकथा प्रकाशित कृतियाँ – अंजुरी भर शब्द [कविता संग्रह ] व लगभग बीस राष्ट्रिय काव्य संग्रहों में कविता लेखन | सम्पादन --- मेरे पहाड़ में [कविता संग्रह ] विद्यालय की पत्रिका बुरांस में सम्पादन सहयोग | प्रसारण ----दूरदर्शन शिमला व आकाशवाणी शिमला व धर्मशाला से रचना प्रसारण | सम्मान----- हिमाचल प्रदेश राज्य पत्रकार महासंघ द्वारा आयोजित अखिल भारतीय कविता प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त करने के लिए पुरस्कृत , हिमाचल प्रदेश सिमौर कला संगम द्वारा लोक साहित्य के लिए आचार्य विशिष्ठ पुरस्कार २०१४ , सामाजिक आक्रोश द्वारा आयोजित लघुकथा प्रतियोगिता में देशभक्ति लघुकथा को द्वितीय पुरस्कार | इनके आलावा कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित | अन्य ---इरावती साहित्य एवं कला मंच बनीखेत का अध्यक्ष [मंच के द्वारा कई अन्तर्राज्यीय सम्मेलनों का आयोजन | सम्प्रति पता –अशोक ‘दर्द’ प्रवास कुटीर,गावं व डाकघर-बनीखेत तह. डलहौज़ी जि. चम्बा स्थायी पता ----गाँव घट्ट डाकघर बनीखेत जिला चंबा [हिमाचल प्रदेश ] मो .09418248262 , ई मेल --- [email protected]