इमारत
कविताओं के शहर में
एक छोटा सा, किराए का
मकान है मेरा
बड़ी ऊंची इमारते हैं यहाँ
आसमान से बातें करती
मेरी दिहाड़ी बहुत कम है
पर मेरी तसल्ली समृद्ध है
ज़िम्मेदारी जो निभा रही
अपनी ही
इस बड़े शहर में
कविताओं की इमारत
बनती है ,
मैं ढोती हूँ
शब्दों के ईंट
अर्थों की रेत
बनती है बहुत ख़ूबसूरत
इमारत जब,अपनी
मुस्कुराहट का रंग
चढ़ा देती हूं,
मन के भीतर जो गाँव है
उसमें अपनी कमाई से
बना रही हूँ एक घर
जब लौटूंगी अपने घर में
दानों से बनाऊंगी
एक रंगोली
करूँगी चिड़ियाँ का इंतज़ार
उसे चुगते देखूंगी
और याद करूँगी
शहर की इमारतों का।