गजल
हम आज यहां पर हैं कल जाने कहां होंगे
पर साथ हमारे ये जख्मों के निशाँ होंगे
ना देह पे दिखते हैं छाले भी नहीं पड़ते
यह रूह पर हैं मेरी बस साथ फना होंगे
बस पीर हमारी यह नगमों से झलकती है
मिल जाएगा सुर कोई उस रोज बयाँ होंगे
अहसास की है दुनिया मोती को परखती है
देखेगी कसौटी पर हम फिर से रवाँ होंगे
वादे को निभाने को चलना भी जरूरी है
रफ्तार बदलने को कुछ और निहाँ होंगे
जीवन के सफर में खुद हम ढूंढ रहे उसको
बस्ती है फकीरों की और हम भी वहां होंगे
— डॉक्टर इंजीनियर मनोज श्रीवास्तव