गीतिका
खुद ही कीचड़ घोला खुद ही कहते गंदला पानी है
सींच रहे विष वृक्ष लालसा अमृत की बेमानी है
बेचो अपने वोट गवाही झूटी भरो अदालत मे
उस पर करो शिकायत शासन तो करता मनमानी है
खिड़की दरवाजे खोलोगे तभी उजाला आएगा
सूरज को अन्यायी कहना तो हरकत बचकानी है
हर एक लहर तोड़ती है दम पटक पटक कर सर अपना
टकराना इन चट्टानों से तो यारों नादानी है
चाहे जले हथेली फिर भी दीप न ये बुझने पाये
तूफानों से टकराने का ये हठ भी तूफानी है
जिसने भी चुनाव जीता हो काले धन के बूते पर
वही बेच दे देश आज तो इसमे क्या हैरानी है
— डॉक्टर इंजीनियर मनोज श्रीवास्तव