लौह पुरुष
उनकी अच्छी ख़ासी नौकरी थी। वेतन भी कुछ कम नहीं । रहने को बंगला ,घूमने को गाड़ी , मेडिकल भत्ता, सभी कुछ तो मिला था। बड़े और मझले की शादी हुई तो बाप ने ख़ुशी से एक एक फ़्लैट ख़रीदकर उन्हें उपहार में दिया। छोटे की शादी के समय तो उन्होंने अपना फ़्लैट ही उसके हवाले कर दिया। सोचा-“ सब बेटों का ही तो है। ज़रूर
त के समय क्यों न उनका हिस्सा उन्हें दे दिया जाय। हम 4-4 महीने बारी -बारी से उनके पास रहा करेंगे।”
कुछ दिनों तक पति-पत्नी उन्मुक्त पंछियों की तरह घूमते रहे । न कोई बंधन न गृहस्थी का चक्कर । उनकी पूरी ज़िम्मेदारी बहू- बेटों ने ओढ़ ली। पर जल्दी ही खानाबदोश की सी ज़िंदगी से ऊब गए।
उन दिनों वे अपने छोटे बेटे के पास थे ।बड़ा और मझला भी आया हुआ था । माँ को कुछ अनमना देख छोटा बेटा पूछ बैठा -” माँ किस सोच में हो ?”
“बेटा अपनी फुलवारी को महकता देख हम दोनों बड़े ख़ुश हैं। हमने हमेशा तुम लोगों की ख़ुशियाँ देखी और सब कुछ दे दिया।”
“इसमें तो कोई शक नहीं ।पापा ने तो अपना घर भी मेरे नाम कर दिया।”
“हाँ बेटा ,लेकिन अब करने की तुम्हारी बारी है।”
“क्या करना है बोलो।”
“ छोटे ,हम तो अपने ठिकाने बदलते -बदलते तंग आ चुके हैं । लगता है सामान के साथ हमारे भी तीन हिस्से हो गए हैं।स्थाई ठिकाना बहुत ज़रूरी है मेरे ख़याल से पास ही दो कमरे का फ़्लैट ख़रीद लेते हैं। तुम तीनों भाई मिलकर बड़ी सरलता से इंतज़ाम कर सकते हो।”
“क्या कह रही हो माँ ! इस उम्र में अलग । घर कैसे सम्भालोगी?”बेटा अचरज में था।
“तुम हो न पास में।बाहर का तुम देखोगे । घर की नौकरानी मेरा साथ देगी और बहू तो है ही। चिंता किस बात की हैं।” माँ बोली।
“माँ जी मुझे इतना समय कहाँ कि आप घड़ी -घड़ी आवाज़ दो और मैं दौड़ी आऊँ। मैं दो -दो घर नहीं सँभाल सकती।”बेरुख़ी भरे स्वर उभर पड़े।
“माँ मुझे भी अफिस से आकर हज़ार काम रहते है।” छोटा बेटा बीबी के रंग में रंग गया।
“ठीक है ,ठीक है । तुम तो हमेशा हमारे दिल में बसे रहते हो । जब मिलने को मन करेगा चले आएँगे । मैं कल अपनी सहेली शर्मिला के गई थी। उसका घर बेटे से चार कदम ही दूर है। क्या मन से घर सजा रखा है । पेंटिंग पर पैंटिंग बनाकर दीवारें ढक ली हैं। देखकर कलेजे में एक हूक सी उठी। मैंने तो न जाने कब से कूँची नहीं पकड़ी!जबकि पेंटिंग प्रतियोगिता में मैं ही प्रथम आती थी। खाली समय यूँ ही गँवा दिया।”माँ ने गहरी साँस ली।
“अरे माँ किस पचड़े में पड़ गयीं। जो करना था वह कर लिया।इस उम्र में अब आराम करो।”
“ज़्यादा आराम भी तो जी का जंजाल बन कर रह गया है।”
“बेटा एक तरह से तुम्हारी माँ ठीक ही कह रही है।”पापा ने एकाएक अपनी चुप्पी तोड़ी”।
“ओह पापा !आप भी माँ को समझाने की बजाय उनकी हाँ में हाँ मिला रहे हो।” आज पहली बार बड़े बेटे को ऊँची आवाज़ में बोलता देख वे सन्नाटे में आ गए।
“इसके अलावा फ़्लैट ख़रीदने को पैसा कहाँ से आएगा?”उस ने झल्लाते हुए बंदूक से एक गोली दागी।
“न ख़रीदो! किराये में जा सकते हैं।”बेटे का निशाना चूक गया।
“घर चलाने को पैसा भी तो चाहिए।” उसने फिर दूसरी गोली दागी ।
“उसकी चिंता न करो । मैं किसी के सामने हाथ पसारने वाला नहीं ।” निशान फिर चूका ।
दाल गलती न देख छोटा नरमी से बोला “पापा हम में से कोई नहीं चाहता कि आप अलग रहें। लोग भी न जाने क्या क्या कहेंगे?”
“तुम्हें दूसरों के कहने की चिंता है पर अपने बाप की नहीं।कान खोलकर सुन लो कि मैं तुम्हारे साथ किसी मजबूरी से नहीं रह रहा , मोहवश साथ में हूँ। मेरी अपनी भी तो ज़िंदगी है। मैं आर्मी मैन रहा हूँ और अच्छी तरह जानता हूँ कि किस तरह से अपनी सुरक्षा की जा सकती है।”आवाज़ में बिजली सी गर्जना थी ।
वे सीना तानकर खड़े हो गए । लड़के सकपका गए । बेटे तो पापा का अस्तित्व- व्यक्तित्व ही भूल गए थे । उनको केवल एक बात याद रही थी कि वृद्ध माँ बाप उनके आश्रित हैं।
— सुधा भार्गव