अभिमान
गाँव में हर वर्ष चैत माह के अंत में शिवलिंग में पुआल की कुटिया बनायी जाती है। नौ दिनों तक भक्ता और ब्राह्मण कुटिया में सोते। सुबह उठकर ब्राह्मण के द्वारा सिखाये गये, नाच को प्रस्तुत करते, भक्ता तालाब स्नान करने जाते। आगे-आगे ब्राह्मण। बीच में भक्ता। पीछे-पीछे ढोल-नगाढ़े वाले और आगे पीछे दायें-बायें गाँव के बच्चे से लेकर बूढ़े, जवान और स्त्रियाँ भी, भक्ता नाच का आनंद लेते। इसी प्रकार स्नान करके शिवलिंग वापस आते। ब्राह्मण विधि-विधान से भक्ता को पूजा-पाठ कराते।
दिन में भक्ता नाच प्रस्तुत करते हुए घर-घर जाकर फल और चावल मांग लाते। एक दिन तालाब से जमीन में लटन देते हुए शिवलिंग तक आते। नौवाँ दिन मुख्य भक्ता, जिसे गाँव में पाट भक्ता कहा जाता है। वह माँ काली का रूप धारण करता। हनुमान बना हुआ भक्ता, हनुमान की भांति उछल-कूद करता। कोई नंदी बनता। कोई स्वर्ग की अप्सरा। कोई मुँह से आग निकालता। कोई सिर में चार-पाँच घड़ा उठा लेता। और सबसे ऊपर वाले घड़े में आग जला लेता। सब भक्ता विभिन्न रूप में नजर आते। गाँव के लोग पंक्ति बनाकर बैठ जाते। ब्राह्मण एक-दूसरे के कंधे से होकर तालाब से शिवलिंग तक चले आते। एक बार अप्सरा का रूप धारण किया हुआ भक्ता पर किसी ने जादू-टोना कर दिया। भक्ता बीच रास्ते में ही मूर्छित होकर गिर पड़ा। माँ काली का रूप धारण किया, पाट भक्ता के आगे ब्राह्मण अगरबत्ती दिखा लिये और मूर्छित भक्ता की नाक के सामने ले गये। मूर्छित भक्ता तुरंत उठकर नाचने लगा। ब्राह्मण का मानना है कि पाट भक्ता जब माँ काली का रूप धारण किया होता है। तब पाट भक्ता, पाट भक्ता नहीं रहता। उस समय उसके पास माँ काली की सारी शक्ति विराजमान है। वह चाहे तो जादू-टोना करने वाली डायन को बीच सड़क में नचा की षक्ति है। और पल भर में उसे मार भी। उनकी क्रोध को शांत करने के लिए शिवलिंग में कदम रखते ही माँ काली के खड्ग से बकरा की बलि दी जाती है। उसके बाद ही शिवलिंग में बना पुआल की कुटिया के अंदर प्रवेश करता है।
उसी रात गाँव में बहुत बड़ा मेला लगता। रात में पहले भक्ता नाच होता। फिर छःनृत्य होता। भौर होते ही शिवलिंग के आगे, दस फुट के गड्डा में लकड़ी जला कर अंगार तैयार किया जाता है। उस अंगार में ब्राह्मण पहले गुलांची फूल को मंत्र पढ़कर डालते। फूल जस का तस रहता, मुरझाता तक नहीं। फिर ब्राह्मण हाथ में अंगार को उठाकर कुटिया के अंदर चले जाते। शिवलिंग में अर्पित कर बाहर निकलकर पुनः एक फूल को डालते और दस फुट के गड्डे में भरे अंगार में नंगे पाँव पार हो जाते हैं। ब्राह्मण के बाद पाट भक्ता पार होता। फिर एक-एक करके सभी भक्ता और भक्तिनी भी पार हो जातीं। अंत में ढोल-नगाढ़े बजाने वाले भी नाचते हुए पार होते। यह चैत संक्रांति के दिन होता है।
गाँव में सभी देवी देवता की पूजा-पाठ किया जाता है। दशहरा में माँ दुर्गा की प्रतिमा बनायी जाती है। दशमी के दिन नाटक का आयोजन किया जाता है। अभिनय गाँव के युवक ही करते। सीता हरण, लव-कुश काण्ड, मनसा मंगल एवं देवरानी-जेठानी, डेंड़सा-डेंड़सी जैसी पौराणिक और सामाजिक कथा पर अभिनय करते।
वर्ष में एक बार नौ दिनों का रामचरितमानस की कथा का अयोजन किया जाता। सुबह-शाम भगवान राम की आरती की जाती। दूर-दराज से रामचरितमानस के बड़े-बड़े विद्वान को बुलाया जाता। इस तरह के भव्य अयोजन किया जाता। इस प्रकार के आयोजन को करने के लिए गाँव में चंदा उठाया जाता। हर आयोजन में घर-घर जाकर चंदा उठाने से पहले, दुर्गा मंदिर के चबूतरा पर बैठक बुलायी जाती। जहाँ अपने इच्छानुसार चंदा लिखवा लेते। उत्सव के आयोजन पर विचार-विमर्श भी किया जाता। बैठक में गाँव के राजा साहब, देवी बाबू एवं अन्य गणमान्य लोग उपस्थित होते। राजा साहब एक हजार एक रुपये लिखवाते। देवी बाबू सात सौ एक्यावन रुपये। कोई पाँच सौ एक रुपये। कोई एक सौ एक रुपये। इस तरह से सब अपना-अपना लिऽवा लेते। अंत में रंजित खड़ा होकर ग्यारह सौ एक्यावन रुपये लिखवा लेता। और राजा साहब से लेकर अन्य गणमान्य लोगों का सिर नीचा कर देता।
रंजित के पास पैसों की कमी नहीं थी। खपरैल का बड़ा-सा बंग्ला घर बना लिया था। पिताजी बताते हैं, ‘‘रंजित के घर में यहाँ-वहाँ पैसा रखा मिलता। उनके घर में दूध, दही, अनाज और पैसों की कभी कमी नहीं थी। खेती में भी अच्छा पैसा कामा लेता। और सास भी पैसा देतीं। राजा साहब और गणमान्य लोगों का सिर नीचा करने पर उन्हें आनंद मिलता। हर पूजा-पाठ एवं अन्य आयोजन के लिए चंदा के सामूहिक बैठक में सबसे अधिक पैसा देकर अपने आप को सबसे बड़ा समझता।’’
रंजित का एक पुत्री और एक पुत्र है। पुत्र का नाम कुणाल और पुत्री का नाम रेशमी रखा था। कुणाल की शादी के चार महीने हुए थे। एक दिन सब्जी में नमक थोड़ा ज्यादा हो गया। रंजित सब्जी को बाहर फेंक दिया। और खाट में बैठकर पतोहू को गाली देनेे लगा। कुणाल पहले ही खाना खा लिया था। कुणाल कहता है, ‘‘पापा, सब्जी में थोड़ा-सा ही तो नमक ज्यादा हुआ है। इसमें गाली दे रहे हो।’’
‘‘तुम! चुप ही रहो। कुछ काम करने को आता नहीं। और पत्नी को डाँटने के बजाय पत्नी का पक्ष ले रहे हो।’’
‘‘पापा, मैं कौन-सा काम नहीं करता हूँ।’’
‘‘तुम हरामजादे! घर में चौबीस घंटे पत्नी के साथ सोया रहता है। और कहता है, कौन-सा काम नही करता हूँ।’’
कुणाल को यह बात तीर की भांति चुभा है। ‘‘अच्छा! तो मेरा इस घर में जीवित रहना ही बेकार है।’’ कहता सब्जी में डालने वाली कीटनाशक दवा लेकर निकला।
‘‘मर्द है तो आज तुम पीकर तो दिखा!’’
कुणाल दवा को मुँह में लगाकर घट-घट पी जाता है। रंजित खड़ा होकर देखता ही रह जाता है। कुणाल कात लगे मुर्गा की भाँति जमीन में गिरकर फड़फड़ाने लगा। पत्नी गर्भ में है। तीसरा महीना चल रहा। कुणाल के सामने सिर पटक-पटक कर रोने लगी। कुणाल के मुँह से सफेद लार निकलने लगा। आमने-सामने के लोग आकर गोबर पिलाने लगे। गोबर पिलाने से उल्टी होती है। उल्टी होने पर जहर बाहर निकल जायेगा।
गाँव के लोगों के सामने लज्जित रंजित पुत्र कुणाल को राँची के सरकारी हॉस्पिटल रिम्स ले आया। डॉक्टर के पूछने पर कहता है, ‘‘कुणाल कल शादी की पार्टी में गया था। पता नहीं, वहाँ क्या खा लिया? सुबह आने के बाद से इसका चेहरा कुछ अजीब-सा दिख रहा। बहू के पूछने पर भी कुछ नहीं बताया। दोपहर होते ही मुँह से सफेद लार निकलने लगे। शायद जहरीला साँप ने काट लिया हो या जहरीली शराब पी ली हो। पार्टी में दोस्तों के साथ गया था।’’
डॉक्टर अनुमान से इलाज करते रहे। कुणाल मृत्यु के करीब जाता रहा। रात के करीब सात बजे डॉक्टर के सामने पिता का झूठ, पुत्र को हमेशा के लिए सुला दिया। पुलिस के डर और अपने पैसों के अभिमान से नौजवान पुत्र को खो बैठा। रंजित को गम नहीं।
कुणाल की पत्नी पति के वियोग में बार-बार बेहोश होती। होश आते ही आंगन के बीच खाट में हमेशा के लिए सोये पति के सामने जाकर गोली लगे जानवर की भांति जमीन पर गिर जाती। पेट में पल रहा बच्चा इस दुनिया में कदम रखने से पहले ही चला गया। पति का क्रियाकर्म होने के बाद मायके चली गयी। रंजित के अभिमान ने आज एक नहीं तीन की हत्या की।
इकलौती बेटी रेशमी की शादी तय की। रंजित पुत्री की शादी में गाँव के कुटुम्ब, मित्र और दूर-दराज के मेहमानों को आमंत्रित किया। पुत्री की शादी बहुत धूमधाम से की।
रेशमी को ससुराल में एक पुआल की कुटिया में प्रवेश करारा गया। रेशमी को पिता ने कहा था कि तुम्हारे ससुराल में चार कमरे का दो तल्ला घर है। पर यहाँ तो केवल पुआल का ही घर है। पति युगल से पूछती है, ‘‘आपका दो तल्ला का घर कहाँ है?’’
युगल धीरे से कहता है, ‘‘कैसा घर?’’
रंजित मन-ही-मन सोचा कहीं उस दिन ससुर जी ने मास्टर के घर को मेरा घर तो नहीं समझ लिये थे। फिर कुछ ही देर में कहता है, ‘‘हाँ! हाँ! है न! ये! हमारा पुराना घर है। शादी के सारे रस्मो-रिवाज यहीं होती हैं।’’
‘‘मैं, पुआल के घर में रह नहीं पाऊँगी!’’
‘‘हमें इस घर में कम-से-कम एक महीना रहना ही पड़ेगा। यह पूर्वजों का नियम है। हम कैसे तोड़ सकते हैं?’’
‘‘मैंने कहा न! पुआल के इस घर में एक पल भी रूक पाना, मेरे लिए असंभव है।’’
‘‘ओ! मेरी जान! एक ही महीना की तो बात है।’’
रेशमी किसी तरह एक महीना गुजार ली। लेकिन पति युगल कभी छत के घर जाने का नाम तक नहीं लेते। रेशमी के नया घर का जिक्र करने पर पति कहता, ‘‘मैं, कल ही पंडित जी के पास गया था। इस समय नया घर में प्रवेश करने का शुभ मुहूर्त नहीं है।’’
इसी तरह करते तीन माह गुजर गया। एक दिन पति और सास-ससुर तीनों सुबह उठकर खेत चले जाते। तीनों के खेत जाने के बाद रेशमी डरती हुई। घर से बाहर निकलकर एक बूढ़ी दादी से कहती है, ‘‘दादी! मैं, आपसे एक बात पूछना चाहतीं हूँ।’’
‘‘हाँ बेटी, पूछो!’’
‘‘दादी, क्या मेरे पति का नया छत का घर है?’’
‘‘छत का घर! नहीं तो!’’ फिर कुछ देर रूककर बोली, ‘‘किसने कहा बेटी?’’
‘‘मेरे पति ने! जब मेरे पापा लड़का देखने आये थे। उस समय इन्होंने दोतल्ला के घर में बैठाकर चाय-नास्ता कराया था।’’
‘‘वह राम मास्टर का घर है बेटी! यहाँ राम मास्टर के अतिरिक्त किसी के पास छत का घर नहीं है। तुम्हारे ससुर मास्टर के वहाँ मजूरी करता था। तेरी शादी के बाद से अपने खेत में काम करता है।’’
पति की सच्चाई जाने के बाद रेशमी रोने लगी। जब पति खेत से घर लौटते। तब तक दूसरे दिन खाना बनाकर तैयार रहती। पर आज घर में आग तक नहीं जलायी थी। बेड में रेशमी रो रही। क्या हुआ रेशमी? रेशमी चुपचाप रोती रही। युगल पुनः कहता है, ‘‘कुछ तो बता क्या हुआ है? या केवल रोती ही रहेगी।’’
‘‘मुझे तुम मेरे मायके पहुँचा दे बस!’’
युगल तुरंत रेशमी को मायके छोड़ आता है। रात में रेशमी अपने पिता को पति के परिवार की सच्चाई बता दी। रंजित को पहली बार अपने अभिमान पर दुःख हुआ। मन-ही-मन सोचने लगा कि उस दिन मैंने क्यों नहीं घर का जिक्र किया? मास्टर के घर को होने वाला दामाद का घर समझ बैठा। अरे! मैंने ये क्या कर दिया? रंजित रात भर विचार किया। सुबह उठकर घर के सारे पैसों को लेकर सीधे रेशमी की ससुराल चला गया। दामाद के हाथ में पैसा देते हुए कहता है, ‘‘बेटा! तुम एक अच्छा-सा खपरैल का घर बना लो!’’
‘‘पापा, ये क्या कह रहे हैं?’’ मन में सोच रहा है कि बेटा और एक बार केवल बोल दे!
‘‘नहीं बेटा! रख लो! शरमाओ नहीं!’’
‘‘आप इतने प्यार से दे रहे हैं तो मैं रख लेता हूँ।’’
युगल महीने भर में घर तैयार कर रेशमी को लेने आ जाता है। रेशमी भी खुशी-खुशी चली जाती है। वह मन में सोच लिया। अब कुछ भी जरूरत की चीजें रेशमी के कहने पर ससुर जी दे ही देंगे। आषाढ़ का महीना आ गया। खेत की जोताई के लिए एक जोड़ी बैल की आवश्यकता है। वे अपने ससुर जी से कहता है, ‘‘हमारे खेत लबालब पानी से भर गया है। पंद्रह दिन जैसा दे दीजिए न पापाजी! ऐसे भी आपके खेत में अभी पानी नहीं हुआ है। जब आपके खेत में पानी भर जाएगा। तब मैं, स्वयं बैल को पहुँचा दूंगा, पापाजी! मुझे रेशमी ने ही आपसे ……………..।’’
युगल अपनी चतुराई से ससुर जी के बैल लेने में कामयाब हो जाता है। इसी प्रकार अगहन महीने में सब्जी की सिंचाई के लिए पानी मशीन को भी ले लेता है। रंजित अपनी बेटी को दुःखी नहीं देख सकता। स्वयं किसी से मांग कर खेत की जोताई की। और अब भी किसी का पानी मशीन मांगकर या रस्सी से पानी खींचकर खेत की सिंचाई करता।
रंजित को बेटी-दामाद ने लूट लिया। अब मन में हमेशा वंश की चिन्ता सताने लगी। पत्नी की नसबंदी रेशमी के होने के बाद ही करा दिया था। रंजित दूसरी शादी करने को तैयार हो जाता है। पत्नी भी मजबूरन दूसरी शादी करने की इजाजत दे दी। रंजित दूसरी शादी कर ली। साल भर में दूसरी पत्नी एक बेटी को जन्म देती हैं। पुत्री का नाम आरती रखा। फिर एक पुत्र को जन्म दी। पुत्र का नाम किशन रखा। रंजित ओर भी पुत्र चाहने लगा। दो साल बाद पत्नी दो पुत्री को जन्म दी। एक पुत्री जन्म लेते ही मर गयी। जीवित पुत्री को छोटी-छोटी कहने लगा। पत्नी पुनः एक पुत्र को जन्म देती हैं। इस पुत्र का नाम ब्राह्मण के निर्देश से लखन रखा गया।
रंजित अब आर्थिक संकट से गुजरने लगा। उम्र भी अध्कि हो चला। बहुत देर तक खेत में काम भी नहीं कर पाने लगा। पहली पत्नी की माँ हमेश पैसा दे रही थीं। वह भी मर गई। अचानक छोटा पुत्र लखन को तेज बुखार आ गया। बेटा का इलाज गाँव के झोला-छाप डॉक्टर से कराते। रंजित की जबान पूर्व की भाँति ही चलती। गाँव के आयोजन और पूजा-पाठ के चंदा में अब भी सबसे आगे रहता। जबकि परिवार जमीन बिककर चलाने लगा हो। लखन पाँचवे दिन खटिया से उठने नहीं सका। और छठवाँ दिन के सुबह ही प्राण त्याग दिया। आज एक बार पुनः रंजित दुःखी हुआ।
आरती भी शादी देने लायक हो गयी। एक ओर गरीबी ने रंजित को विवश कर दिया था। दूसरी ओर बेटी की शादी। आरती की शादी में घर बनाने वाली जमीन का एक चौथाई भाग बेच दिया। रंजित के लिए खेत में काम करना कठिन हो गया। किशन स्कूल छोड़ माँ के साथ खेत में काम करने लगा। रंजित सब्जियाँ साइकिल में लादकर पैदल बाजार चला जाता। शाम को भी पैदल चला आता। अब साइकिल चलाने भी नहीं सकता। एक दिन बाजार जा रहा था। चोगा के नाले वाले चढ़ान में पैर फिसल जाने पर साइकिल रंजित के शरीर में गिर गयी। रामू भी बाजार जा रहा। रामू अपनी साइकिल खड़ा की। और जल्दी से रंजित को उठा लिया। रंजित की सब्जी को उठाकर बैग और बोरा में डाल दिया। जब रंजित बाजार जाने में असमर्थ होने लगा। तब रामू अपनी साइकिल में लाद लिया। और किशन को खबर भेज दी।
किशन चौदह साल का हो गया था। पिता बाजार जाने में असमर्थ हो गये। किशन सब्जी बिकने बाजार चला जाता। जिस दिन साइकिल रंजित के शरीर के ऊपर गिरा। उस दिन से न जाने क्या हुआ? धीरे-धीरे कमजोर होते गये। किशन डॉक्टर को बुलाकर दवा भी दिलाया। पर ठीक होने के बजाय और अधिक कमजोर होते गये। पिता को कमजोर होता देख, पुत्र एक वैद्य को बुला लाया। वैद्य की एक खुराक दवा खिलायी। सुबह पूरा शरीर गुब्बारे की भाँति फुल गया। पुत्र के लिए बीमार पिता का देख-भाल करना। दवा-दारू करना, दवा-दारू के लिए पैसों का जुगाड़ करना कठिन होने लगा।
रंजित की हालत धीरे-धीरे गंभीर होती गयी। खटिया से उठकर बैठना भी असंभव हो गया। हर समय कुछ-न-कुछ बोलते ही रहते। किसी पागल व्यक्ति की तरह। किशन पैसों की कमी के कारण बीमार पिता को बाहर ले जाकर इलाज करा नहीं सकता। वहीं घर के दीवालों में दरार पड़ गयी थी। खपरैल भी पुराना हो गया था। किशन के पास न खपरैल ही बदल पाने का समर्थ है और न सरकारी आवास मंजूर कराने के सात हजार रिश्वत के पैसे ही। पानी पड़ते ही घर तालाब में तबदील हो जाता। घर के चावल भींगकर खराब हो जाता। इसलिए बरसात के दिनों में हर दिन दुकान से चावल, दाल, आलू, प्याज आदि जरूरत के सामान खरीद लाता।
किशन अपनी माँ के साथ हर दिन की भाँति आज भी सुबह ही खेत चला गया। छोटी बहन घर में खाना बना लेती। पिता को खिला-पीला लेने के बाद स्कूल चली जाती। छोटी खाना बना ही रही है कि अचानक कुछ आवाज आने लगी। छोटी पिता के पास गई। जहाँ पिता की आँखें खुली और मुँह से गड़ गड़ गड़……….की आवाज आ रही है। छोटी एक पल के लिए डर गई। फिर दौड़कर भैया और माँ को बुलाने खेत चली गई। खबर सुनते ही किशन दौड़ा चला आया। माँ रोते-रोते आने लगी। किशन आकर देखा कि पिता की आँखें खुली और मुँह बंद। तीनों रोने लगे। माँ जोर-जोर से रोने लगी। रोने की आवाज सुनकर आस-पास के लोग आ गए। किशन को समझा-बूझाकर शांत करते हैं। किशन आरती और रेशमी को फोन से सूचना दी। बड़ी माँ रेशमी के घर ही रहती। वह भी आ गई। शाम को दाह-संस्कार के लिए कांची नदी ले गए। विधि विधान के अनुसार किशन मुखाग्नि देकर पिता का अंतिम संस्कार किया।
पिता का क्रियाकर्म करने के लिए घर में न चावल, न दाल और न पैसा ही शेष है। गाँव के एक-दो व्यक्ति से उधार लिया। राशन दुकान से सामान भी उधार लाया। उनकी दोनों बड़ी बहनें और अन्य रिश्तेधार भी थोड़ा बहुत सहयोग किया। पिता के क्रियाकर्म के बाद नियमानुसार मामा के घर जाना होता है। माँ और दोनों भाई-बहन मामा के घर चले जाते हैं। दो दिन में एक शराबी ने घर का सारा सामान उड़ा लिया। जब दो दिन के बाद घर लौट आते हैं। तब घर का दरवाजा खुला है। तीनों हड़बड़ाते हुए घर के अंदर चले जाते हैं। घर में खाना बनाने का बर्तन, न चावल और न चिवड़ा का बोरा। पिता के क्रियाकर्म में रिश्तेधारों द्वारा लाए गए चावल और चिवड़ा को बोरा में भर रखा था। घर के अंदर एक भी सामान नहीं छोड़ा। बाहर में पड़ा एक पुराना कड़ाई केवल बचा है।
किशन सोनाहातू थाना में चोरी की रिपोर्ट दर्ज कराता है। बड़ा बाबू चोरी हुई सामान की लिस्ट बना ली। फिर कहा, ‘‘हम जल्द ही सामान बरामद कर लेंगे। तुम चिंता मत करना।’’
किशन घर चला आता है। हमारे गाँव और पुलिस थाने की दूरी मुश्किल से आठ किलोमीटर होगी। पुलिस एक दिन भी सामान की जाँच-पड़ताल में गाँव नहीं आती। पन्द्रह दिन के बाद किशन पुनः थाने पहुँचा। बड़ा बाबू दूर से ही पूछता है, ‘‘क्या है?’’
किषन झुक कर प्रणाम किया और कहता है, ‘‘साहब मेरी चोरी सामान की जाँच-पड़ताल कर वापस दिला दीजिए।’’
‘‘चोरी सामान की रिपोर्ट दर्ज की है।’’
‘‘हाँ!’’
‘‘कब किया है?’’
‘‘पन्द्रह दिन हो गया साहब!’’
‘‘जाँच-पड़ताल कराने के लिए दक्षिणा लगती है। तुम तो उस दिन केवल रिपोर्ट लिखाकर चला गया।’’
‘‘साहब, मेरे पास न सामान खरीदने का पैसा है। और न आपको देने की दक्षिणा।’’
‘‘दक्षिणा नहीं है तो जा! घर में जाकर आराम करना!’’
‘‘साहब आप चाहे तो एक दिन में सामान वापस दिला सकते हैं।’’ कहता हुआ किशन बड़ा बाबू का पैर पकड़ लिया।
साहब हड़बड़ाकर उठे और किशन को गेंद की भांति मार दिया। वहीं चिल्लाते हैं, ‘‘भाग बेटा! यहाँ से नहीं तो चूतड़ में दो-चार हंटर लगा दूँगा! तेरी! अम्मा याद आयेगी।’’
किशन डर से दौड़ता थाना से बाहर निकल गया।
— डॉ. मृत्युंजय कोईरी