कहानी

कहानी – घर वापसी 

 मोहन अभी दस साल का ही था तो पिता का साया सिर से उठ गया। लाजो अभी जवान थी ।कोई तीस बरस की उम्र । मुसीबतों का पहाड़ सिर पर टूट पड़ा ।  घर में दो जीवों के लिए रोटी का जुगाड़ भी बड़ा मुश्किल था । खेत तो थे पर उन्हें चलाता कौन। और फिर जिसे बीजने के लिए देते  वह भी मुफ्त में ही सारी जमीन को बीज कर फसल को हड़पने की मंशा रखता ।  

इन मुश्किल हालात में विधवा लाजो ने अपने सीखे हुए हुनर को आजमा लिया । वह लोगों के कपड़े सिलने लगी और उसी से मां बेटे दोनों का मुश्किल से ही सही पर पेट भरने लग पड़ा… । 

समय अपनी गति से आगे बढ़ता रहा । पता ही नहीं चला कब मोहन ने हायर सेकंडरी पास कर ली ।

 जमाना अच्छा था । उस जमाने में नौकरी मिलना कोई ज्यादा मुश्किल काम नहीं था । थोड़ी सी जद्दोजहद के पश्चात जैसे ही वह अट्ठारह वर्ष का हुआ, उसे शहर में पर्यटन विभाग में डेली वेजिज तौर पर क्लर्क की नौकरी मिल गई ।

 जैसे ही नौकरी मिली मां की खुशी का ठिकाना न रहा । वर्षों की तपस्या सफल हो गई थी।

हर एक मां बाप को लगता है कि उनके जीते जी उनके बच्चों कीआजीविका का प्रबंध हो जाए ।

उनके शादी ब्याह हो जाएं। उनके घर बस जाएं बाल बच्चे हो जाएं और वे भी दुनिया से जाने से पहले ये सब देख लें। मोहन की माता लाजो की इच्छा भी अब सिर चढ़कर बोलने लगी थी ।उसने अब मोहन को कह दिया था कि जल्दी ही विवाह कर लो ।

मेरे साथ भी सहयोग हो जाएगा और मेरी इच्छा भी पूरी हो जाएगी । तीन चार वर्ष तक मोहन मां को आश्वासन बंधाता  रहा और समय निकालता रहा । 

मोहन पच्चीसवें वर्ष में लगा तो उसका विवाह मां ने पास के गांव में लड़की देख कर करवा ही दिया। 

कहते हैं वक्त हर एक जख्म का मरहम होता है परंतु कुछ जख्म ऐसे भी होते हैं जिन्हें वक्त का मरहम भी नहीं भर पाता।

 ऐसा ही जख्म लाजो के सीने में भी था , असमय ही पति का उसे यूं भरी दुनिया में जवान ही छोड़ जाना ।

आज वह एक बार फिर पति की याद में सुबक सुबह कर रोई…।

“काश आज मोहन के पापा जिंदा होते तो इस खुशी का कुछ और ही मंजर होता ….।”

फिर भी लाजो ने अपने दायित्व को बखूबी निभाते हुए मां तथा बापू का रोल स्वयं ही किया और मोहन को महसूस नहीं होने दिया कि उसके अंदर भी दर्द का लावा दबा पड़ा है।

मोहन इसलिए खुश था कि वह मां की इच्छा पूरी कर रहा था…।

 समय फिर पंख लगा कर उड़ता गया और मोहन के दो बच्चे भी हो गए । अब समस्या उनकी पढ़ाई की थी । 

इसलिए अब मोहन को अपने परिवार को साथ लेकर शहर जाना पड़ना था….।

 मां इसलिए खुश थी की चलो मेरे बच्चे के बच्चे अच्छी शिक्षा ग्रहण कर लेंगे….। शहर के अंग्रेजी स्कूलों में ।

इसलिए उसने अपने अकेलेपन को अपने भीतर दबाते हुए मोहन को परिवार साथ ले जाने की इजाजत खुशी खुशी दे दी थी । 

जबकि भीतर वह अब और भी तन्हा हो गई थी ।

परंतु क्या करें …? अपने सुख के लिए  किसी दूसरे के भविष्य को कुर्बान तो नहीं किया जा सकता न …।

मां को घर छोड़ मोहन अपने परिवार को लेकर पोस्टिंग वाले शहर आ गया। समय पंख लगा कर उड़ने लगा दोनों बच्चे धीरे-धीरे बड़े होने लगे उन्हें स्कूल में दाखिल करवा दिया गया और मोहन शहर दर शहर ट्रांसफर होता रहा और बच्चे भी स्कूल बदलते रहे और अगली कक्षाओं में बढ़ते रहे ।

महान हर महीने दो महीने में मां के पास गांव आ जाता ।

मां की देखभाल में उसने कोई कसर नहीं छोड़ी थी….।

कई बार उसने मां से शहर चलने की  ज़िद्द भी की ।

परंतु हर बार मां ने यह कहकर उसे टाल दिया कि घर में भी कोई होना चाहिए । मैं शहर में एडजस्ट नहीं हो पाऊंगी मुझे अपना घर गांव ही अच्छा लगता है।

 तुम मुझसे मिलने आते रहना बस यही काफी है…..।

फिर भी दूर शहर में नौकरी के कारण वह अपनी मां को वांछित समय नहीं दे पाता था । इसका उसे  भीतर दुख तो होता था पर क्या करता ।

 साल छ: महीने में जब कभी बच्चों को छुट्टियां होतीं तो दो-चार दिन के लिए वह गांव में बच्चों को भी दादी के पास ले आता । 

मां की तन्हाईयां यूं ही भरने लगतीं उसे फिर शीघ्र ही वापस जाना पड़ता ।

 जब बच्चे छोटे थे तब यह क्रम  कई सालों तक चलता रहा । गांव आना फिर वापस चले जाना ।

जिंदगी में गांव और शहर परिवार और मां दोनों ही अहमियत रखते थे एक तरफ मां थी तो दूसरी तरफ रोज़ी रोटी व परिवार। 

इसलिए वह न गांव को पूरी तरह छोड़ पाया था और न ही शहर में पूरी तरह बस पाया था….।

समय पंख बांधे उड़ रहा था मां बूढ़ी हो रही थी और बच्चे जवान …..। 

एक दिन उसे गांव से सूचना मिली कि मां बहुत बीमार है- “जल्दी घर आ जाओ । ” खबर मिलते ही वह गांव आ गया। कुछ दिन मां का इलाज चला परंतु मां उसे छोड़कर चलती बनीं। उसे लगा इस दुनिया में उसका कोई नहीं है। वह भरी दुनिया में अकेला रह गया है ।

आज उसे लग रहा था कि वह अपने बच्चों के भविष्य को संवारने के चक्कर में अपनी बेनजीर दौलत को खो बैठा है।

मां का अंतिम संस्कार करने के पश्चात वह कुछ दिन गांव में रहा , फिर शहर आ गया। जिंदगी अपनी रफ़्तार से फिर चल पड़ी। मां अब यादों में  आ ठहरी थी….।

जब याद आती आंखों से आंसुओं का सैलाब उमड़ पड़ता…।

जब गांव में मां थी तो वह गांव के साथ जुड़ा रहा । मां के जाने के बाद ही उसे लगने लगा था कि अब गांव में उसका कोई नहीं है। धीरे-धीरे उसने गांव जाना बंद कर दिया …. । 

अब साल दो साल बाद ही वह एक आधी रात के लिए गांव आता । अपना घर बार देखा और खेतों का चक्कर लगाता फिर वापस चला जाता…।

समय इतनी जल्दी बीत जाता है पता ही नहीं चला….. ।

दोनों बच्चे पोस्ट ग्रेजुएशन के बाद छोटे-मोटे जॉब करने लग पड़े और वह रिटायर हो गया……।

शहर में रहते हुए और अकेला कमाने वाला होने के कारण वह जो कमाता गया उस पूंजी को बच्चों की पढ़ाई पर खर्च करता रहा ।

वह कुछ ज्यादा नहीं जोड़ पाया था । फिर भी जो थोड़ा बहुत जोड़ा था उस पैसे से उसने शहर में एक प्लाट खरीद कर चार कमरों का मकान बना लिया था….। थोड़ी सी पेंशन और यह घर यही पूंजी थी उसकी।

एक दिन गांव से रिश्ते में जो उसके चाचा लगते थे शहर में उनके घर आए और मोहन से गांव की जमीन व घर बेच देने के लिए कहने लगे…..।

यह बात उसे बिल्कुल अच्छी नहीं लगी । उसने प्रण लिया कि  बेशक वह बच्चों को यहीं रहने देगा परंतु गांव में जाकर अपने घर व जमीन को नहीं बेचूंगा।

जमीदार जमीन को अपनी मां की तरह समझता है, उसको पूजता है । बुरे से बुरे हालात का किसान सामना  कर लेता है परंतु उसकी कोशिश रहती है कि कभी भी जमीन न बेची जाए…। 

वह भी अपनी पैतृक जमीन को कभी नहीं  बेचेगा । इसलिए उसने गांव आने का पक्का मन बना लिया….।

जब वह घर आया तो कच्चा मकान गिरने के कगार पर था। जगह-जगह दीवारों पर दरारें आ गई थी मिट्टी जो दीवारों पर लिपि गई थी वह निकल गई थी और अंदर से पत्थर की दीवारों के पत्थर नजर आ रहे थे ।

इस बार वह कई वर्षों बाद घर आया था ।जब उसने खेतों का चक्कर लगाया तो देखा सारे खेत झाड़ियों से अटे पड़े थे । पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण सीढ़ीनुमा खेत झाड़ियों का जंगल दिखने लगे थे।

 परंतु उसके मन में अब फिर से यहां बसने का जुनून हिलोरें ले रहा था । इसलिए उसने कुछ मजदूर लगाकर पहले तो घर की मरम्मत की फिर धीरे-धीरे सारी जमीन की झाड़ियां को साफ  करवा दिया ।

अब  वहीं जमीन जो पहले झाड़ियों से अटी पड़ी थी अब खेतों के रूप में मुस्कुराती हुई नजर आने लगी थी ।

जब उसने यह मंजर देखा तो उसे बहुत खुशी हुई ।

 एक दो साल में ही उसने वहां अपना उजड़ा आशियाना पुनः बसा लिया था । घर मरम्मत करके नया हो गया था कुछ नए कमरे जोड़ लिए थे और जमीन भी अब बरसों बाद फसल देने के काबिल हो गई थी।

अब सारा परिवार गांव आ गया था । शहर का छोटा सा मकान उसने बेच दिया जिससे उसकी खासी पूंजी मिल गई। गांव के हिसाब से यह  बहुत बड़ी रकम थी।

जब वह गांव से गया था बच्चों को पढ़ाने के लिए तब  उसे अपनी मां को अकेले छोड़ना पड़ा था। तब यहां कुछ नहीं था। एक प्राइमरी स्कूल था जिसमें एक ही मास्टर साहब थे। वह भी कभी कभार आते थे वरना चपरासी ही स्कूल चला लेता था ।

पैदल चलना पड़ता था । बाजार जाने के लिए एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ को लांघकर लगभग पांच किलोमीटर चढ़ाई चढ़कर जाना पड़ता था ।

 रास्ते अच्छे नहीं थे । चीड़ के जंगलों के बीचों-बीच सीधी खड़ी चढ़ाई थी। अगर थोड़ा सा पैर रास्ते के बाहर चला गया तो किलोमीटरों में गहरी खाईयां थीं जहां बचना बिल्कुल भी मुमकिन नहीं था । 

उसके देखते-देखते ही कई लोग इन खाईयों में समा गए थे ।

अच्छे स्कूल नहीं थे । अच्छे अस्पताल नहीं थे। गांव में तो कोई इंजेक्शन लगाने वाला भी नहीं था। एक ही पनिहार था जहां सारा गांव पानी भरता था अपने लिए भी और मवेशियों के लिए भी गर्मियों में जब पानी सूख जाता तो दूर नाले से पानी ढोना पड़ता। गांव में बिजली नहीं थी रात को दिए की लौ में पढ़ना पड़ता था ।

कोई बीमार होता तो इसी पहाड़ की चढ़ाई को चढ़कर दवाई लेने जाना पड़ता था और जब कभी किसी की तबीयत ज्यादा खराब हो जाती तो पालकी में चार लोग उसे उठाकर अस्पताल तक पहुंचाने और चार लोग उन लोगों को विश्राम दिलाने के लिए यानी आठ लोग चाहिए होते । तभी  कोई बीमार व्यक्ति अस्पताल पहुंच पाता ।

इस तरह कई लोग तो बिना इलाज के रास्ते में ही दम तोड़ देते। 

उसका गांव कस्बे से दूर था और खासकर सर्दियों के दिनों में  अंधेरा जल्दी हो जाता था तो उसे घर आने में अकेले डर लगता था ।

तब वह कभी-कभी अपने दोस्तों के साथ चला जाता था जो कस्बे में रहते थे । वह वहीं उनके पास रात काट लेता था। इस तरह उसने बड़ी मुश्किल से अपनी पढ़ाई पूरी की थी ।

आज तो गांव में सड़क पहुंच गई थी । घर-घर नलके लग गए थे बिजली का प्रबंध था। इंटरनेट की सुविधा थी । आज जरूरी  सुविधाएं गांव में उपलब्ध थीं ।

उसने देखा गांव के बच्चे प्राइवेट स्कूल में पढ़ने के लिए कस्बे के स्कूल में जाते हैं ।

सुबह ही गाड़ियां उसके गांव से जाती थीं। उसने निर्णय किया की क्यों न यहीं एक प्राईवेट स्कूल खोला जाए और गांव के बच्चों को यहीं शिक्षा दी जाए ।

गांव के बच्चों को घर द्वार में ही अच्छी शिक्षा उपलब्ध हो जाएगी और  अपने बच्चों के लिए रोजगार का प्रबंध भी हो जाएगा । 

उसका यह निर्णय रंग लाया । उसका बाल भारती स्कूल चल निकला।दोनों बेटे स्कूल में एडजस्ट हो गए । गांव के कुछ और बच्चों को भी रोजगार मिल गया …। जहां शहर में उसकी कोई पहचान नहीं थी गांव में दूर-दूर तक उसे और उसके स्कूल को लोग जानने लगे थे।

गांव से शहरों की ओर पलायन करने वाले युवाओं के लिए वह एक प्रेरणा स्रोत हैं। गांव के सियाने लोग उसका उदाहरण देकर युवाओं को उससे उन्नति का हुनर सीखने के लिए प्रेरित करते हैं ।

— अशोक दर्द

अशोक दर्द

जन्म –तिथि - 23- 04 – 1966 माता- श्रीमती रोशनी पिता --- श्री भगत राम पत्नी –श्रीमती आशा [गृहिणी ] संतान -- पुत्री डा. शबनम ठाकुर ,पुत्र इंजि. शुभम ठाकुर शिक्षा – शास्त्री , प्रभाकर ,जे बी टी ,एम ए [हिंदी ] बी एड भाषा ज्ञान --- हिंदी ,अंग्रेजी ,संस्कृत व्यवसाय – राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय में हिंदी अध्यापक जन्म-स्थान-गावं घट्ट (टप्पर) डा. शेरपुर ,तहसील डलहौज़ी जिला चम्बा (हि.प्र ] लेखन विधाएं –कविता , कहानी , व लघुकथा प्रकाशित कृतियाँ – अंजुरी भर शब्द [कविता संग्रह ] व लगभग बीस राष्ट्रिय काव्य संग्रहों में कविता लेखन | सम्पादन --- मेरे पहाड़ में [कविता संग्रह ] विद्यालय की पत्रिका बुरांस में सम्पादन सहयोग | प्रसारण ----दूरदर्शन शिमला व आकाशवाणी शिमला व धर्मशाला से रचना प्रसारण | सम्मान----- हिमाचल प्रदेश राज्य पत्रकार महासंघ द्वारा आयोजित अखिल भारतीय कविता प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त करने के लिए पुरस्कृत , हिमाचल प्रदेश सिमौर कला संगम द्वारा लोक साहित्य के लिए आचार्य विशिष्ठ पुरस्कार २०१४ , सामाजिक आक्रोश द्वारा आयोजित लघुकथा प्रतियोगिता में देशभक्ति लघुकथा को द्वितीय पुरस्कार | इनके आलावा कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित | अन्य ---इरावती साहित्य एवं कला मंच बनीखेत का अध्यक्ष [मंच के द्वारा कई अन्तर्राज्यीय सम्मेलनों का आयोजन | सम्प्रति पता –अशोक ‘दर्द’ प्रवास कुटीर,गावं व डाकघर-बनीखेत तह. डलहौज़ी जि. चम्बा स्थायी पता ----गाँव घट्ट डाकघर बनीखेत जिला चंबा [हिमाचल प्रदेश ] मो .09418248262 , ई मेल --- [email protected]