कविता

प्रतीक्षा

शरद पूर्णिमा की रात

आँखें खोजती रहीं

चाँद, आकाश और तुम्हारा होना।

मेरे पास तुम्हारे हज़ारों चित्र थे

और विंड चाइम सी

खनकती आवाज़ भी;

उन्हें देखता सुनता रहा।

हवा में बसी थी

तुम्हारी देह की

पहचानी-सी गन्ध।

सुनेत्रा,

मुझे नहीं पता

कोई ऐसे ही खोजता है प्रेम?

— राजेश्वर वशिष्ठ