शरद पूर्णिमा की रात
आँखें खोजती रहीं
चाँद, आकाश और तुम्हारा होना।
मेरे पास तुम्हारे हज़ारों चित्र थे
और विंड चाइम सी
खनकती आवाज़ भी;
उन्हें देखता सुनता रहा।
हवा में बसी थी
तुम्हारी देह की
पहचानी-सी गन्ध।
सुनेत्रा,
मुझे नहीं पता
कोई ऐसे ही खोजता है प्रेम?
— राजेश्वर वशिष्ठ