स्त्रियाँ लौटती नहीं
दो जहान में पिसती है
दहलीज जब लाँघती है
रिवाजों,रस्मों की बेड़ियां
अपने पैरों में बाँधती है
छुट जाता है सपनों का
प्यारा सा वह आँगन
मानना ही पड़ता है उसे
जो सफर हिस्से में आता है
कहीं धूप, कहीं छाया
यही रोज किस्से में आता है
बचपन का बगीचा कहता
कुछ दिन का मेहमान
छत का साया जहां मिला
जीवन भर का एहसान
कहीं एक टुकड़ा जमीन
अपने मन का नहीं होता
खुँटे से बँधी जिंदगी
इस देहरी,उस देहरी तक
मन बंजर होता जाता है
नमी के अभाव में दिनों-दिन
कठोर बनाता जाता है
जमीन पक्की इतनी कि
कभी फूल नहीं उगता
कभी-कभार लौट जाने को
एक हुक सी उठती
शिद्दत से दिन गिनकर
उसी एक प्रतीक्षा में
कभी घर तो कभी मकां
कभी साथ नहीं रहता…
— सपना चन्द्रा