कहानी – अग्नि नैया
नीलिमा मेरी बचपन की बहुत अच्छी सहेली थी। आधा किलोमीटर की दूरी पर घर होने के कारण हमारा प्रायः एक बार मिलना हो ही जाता था । सौभाग्य से उसका विवाह भी मेरी ही कॉलोनी के सीमेंट फैक्ट्री के मेनेजर से हो गया , जिससे दोनों की दोस्ती और भी घनिष्ठ हो गई ।
भरा पूरा परिवार था लेकिन दोस्ती के आगे हर रिश्ता फीका पड़ता था। घंटो बीत जाता , वक्त का कुछ पता भी ना चलता। यहां तक की वो आपसी रिश्ते की बातें भी करने से नहीं हिचकिचाते ।
रोज की तरह नीलिमा आज भी तीन बजते ही रेनू के घर पहुंची। आज उसके चेहरे पर का भाव देख — क्या बात है , आज भाई साहब के साथ कुछ कहा -सुनी हो गई क्या!!
अरे नहीं रेनू ,कुछ नहीं।
अब बता भी दे तेरे चेहरे पर साफ झलक रहा है । पता है , कल सुरेश जी बोल रहे थे कि वो एक कन्या गोद लेंगे।
“कहां से ? किसकी ?”
” पता नहीं यार ” “इसी सप्ताह उसका जन्म होगा और जन्म के तीसरे दिन ही घर लाएंगे।
लेकिन उन्हें कैसे पता कि वह लड़की ही होगी। !
यह मैंने नहीं पूछा , शायद सोनोग्राफी टेस्ट कराया होगा।
लेकिन सेक्स बताने की अनुमति नहीं है यार! यह कानूनन अपराध है!
रेनू जो जन्म होते बच्चों को किसी दूसरे के हवाले कर सकती हैं ,वह सब कुछ कर सकती है।
मैंने तो झट से पलट कर इनकी बातों का विरोध किया। क्या-क्या सोचते रहते हो आप ! मैं यह सब दोबारा नहीं कर पाऊंगी और हमारे बच्चे अब इतने बड़े हो चुके हैं , क्या समझाएंगे उन्हें?? क्या वह उसे अपनी बहन मानेंगे ? और यह भी तो सोचिए कि अभी आपकी उम्र 50 साल हो चुकी है, बच्ची 20 साल के होते-होते आप बुढ़ापे की कगार पर खड़े होंगे !
मैंने तो साफ इनकार कर दिया–
नीलिमा तुम्हारी बात तो सही है लेकिन
” लेकिन क्या रेनू, ” तू भी
अरे नहीं, मगर यह भी तो सोच कि तेरे हाथों से एक लड़की का भविष्य उज्ज्वल हो जाएगा। रेनू तू भी उनका साथ दे रही है।
नहीं नीलू ,साथ नहीं दे रही ,लेकिन सोच रही हूं कि यदि वह लड़की तुम्हारे घर आई तो जहां एक तरफ उसका भविष्य, वही सुरेश जी का शौक भी पूरा हो जाएगा !
लेकिन अब मुझ से वो त्याग नहीं होगा, अब मैं आजाद हो चुकी हूं। मेरे दोनों बच्चे छात्रावास में रहते हैं, यहां तक कि मैं अपने पैरों पर भी खड़ी हो चुकी हूं ।अब मुझसे यह सब
नीलिमा मैं तेरी हालत समझ सकती हूं। प्लीज चाय पी ,फिर दोनों मिलकर कुछ उपाय सोचते हैं ।
मुझे कुछ नहीं सोचना।
नीलू ऐसे मत बोल । वो एक लड़की की जिंदगी का सवाल है ,और सुरेश जी की सोच की भी दाद देनी पड़ेगी।
नीलू एक लड़की होने के नाते हमें उनके फैसले का सम्मान करना चाहिए। इस जहां में एक लड़की की सेवा से बढ़कर कोई सेवा नहीं! और वैसे तू इतने दिनों से एक नौकरानी ढूंढ रही थी। क्यों ना तू सुरेश जी को बोलकर बच्ची के साथ जच्चा को भी अपने घर बुला ले ।कुछ दिन अपने ही घर में एडजस्ट कर ले फिर छोटा-मोटा झोपड़ी बनवा देना ।इससे तेरा काम भी निपट जाएगा और सुरेश जी का शौक भी पूरा हो जाएगा और नौकरानी की चिंता हमेशा के लिए खत्म । तेरे बेटे तो अभी से छात्रावास में रह रहे हैं महीने दो महीने में दो दिन आ पाते हैं ।पढ़ाई पूरी करके भी वह घूमने, देखने तो जरूर आएंगे ,नीलू लेकिन रहने नहीं ! यही हमारे भविष्य की कड़वी सच्चाई है , जो हमें भविष्य में झेलना होगा !! और तू जो सत्तर की बात कर रही है ,आज के युग में एक आम इंसान के लिए यह उम्र बहुत बड़ी उपलब्धि है, सोच तब तक तुझे प्यार से कोई पानी देने वाली तो रहेगी!!
रेनू तेरी बातो में दम तो है चल अभी छोड़ यह सब, घर जाकर ठंडे दिमाग से सोचना
नीलिमा की चुप्पी और चेहरे पर शिकन देख सुरेश जी पूछ बैठे– क्या बात है नीलू, इतनी चिंतित
नहीं तुम्हारी बच्ची वाली बात सुनकर थोड़ी परेशान हूं ,
सच्ची नीलू , इसने दोनों का फायदा है हमें भी बेटी का सुख मिल जाएगा और उसे तुम्हारी जैसी प्यारी मां
बस हो गया ,अब फिर आप मत शुरू हो जाइए ! उसने अपनी दोस्त के साथ हूई सारी बातें साझा की। वह सुनकर बहुत खुश हुए, तुम औरते इतनी दूर की कैसे सोचती हो।
क्या करूं,तुम जैसे मर्द हो तो!!
बच्ची की मां ने (रंजू) ज्यों ही सुरेश जी की बात सुनी । पति द्वारा तिरस्कृत महिला रंजू को जीने की एक नई लालसा सी जगी। वह जन्म के तीसरे दिन ही सुरेश जी के साथ अस्पताल से घर आ गई।
नीलिमा के चेहरे पर रंजू को देख थोड़ी शिकन तो जरूर आई लेकिन बच्ची के मासूम चेहरे ने सब कुछ भुला दिया , और अब जब भी रंजू घर का काम करती , बच्ची नीलिमा और सुरेश जी के साथ ही रहती। नीलिमा के विद्यालय जाने के बाद सुरेश अपना अधिकांश समय बच्ची के साथ ही बिताते। उनके लिए बच्ची मानो एक खिलौना सी बन गई। अब वह अधिकांश फैक्ट्री का काम भी कर्मचारियों द्वारा फोन पर ही कर लेते ।
बच्ची का नामकरण और अन्नप्राशन का समारोह भी घर के सदस्यों में ही कर लिया गया। सुरेश जी ने उसका नाम अग्नि नैया रखा । वैसे नीलिमा ने इस नाम पर भी विरोध किया लेकिन वह एक न माने और कहने लगे– अरे नीलू तुम समझती नहीं ,नीलू उस बच्ची ने अग्नि की चार दिवारी को पार कर मानो हमने उसे नौका बन सहारा दिया, मगर अब वह हमारी ही मांझी बन गई है। नीलिमा मौन हो सब कुछ सुनती रही।दोनों बच्चे छुट्टियों में घर आए। बच्ची की मां के भी रहने के कारण वह अग्नि नैया के साथ बिना सवाल किए पूरा दिन बीतते। देखते-देखते वह भी बड़ी हो गई । अब विद्यालय की सारी जिम्मेदारी सुरेश जी ने ही उठाई।
बड़े बेटे की पढ़ाई के दौरान ही प्राइवेट कंपनी से आमंत्रण मिल गया और वह वही कार्य में भी लग गया। छोटा बेटे की पढ़ाई के अंतिम क्षणों में ही एक कंपनी द्वारा सी ए घोषित कर दिया गया। दोनों ही अपनी -अपनी दुनिया में मस्त रहने लगे। महीने में एक आध बार घर आकर घूम फिर कर पुनः कार्यक्षेत्र चले जाते। दोनों ने ही पिता की रजामंदी से विवाह आदि भी कर लिया।
उम्र के पड़ाव पर एक दिन नीलिमा सुरेश जी से कहने लगी –सचमुच अग्नि नैया हमारे जीवन की एक ऐसी माझी बन गई है ,अब यही हमारा संसार रूपी नैया का भी बेड़ा पार लगाएंगी।
सही कहा निलीमा तुमने बेटों के एक दर्शन के लिए हमें अभी भी न जाने कितनों के मोहताज बनना पड़ रहा है।कभी छुट्टी तो कभी बोस ! महीने बीत जा रहे है। हां इसीलिए तो मैंने वक्त रहते दोनों बच्चों को मेरा दो हाथ तो , अग्नि मैया को अपना कलेजे का टुकड़ा बनाया
हां
नीलू यह सही है ,कि लड़के जीने का साधन तो दे सकते हैं , मगर माता-पिता के लिए सेज एक मात्र लड़की ही सजा सकती है ।
अग्नि नैया अब बड़ी हो गई।विवाह के लिए रिश्ते भी आने लगे। लेकिन घर आए मेहमानों को यह कहना कि मैं आपसे विवाह तो करूंगी लेकिन आपको मेरे घर पर रहना होगा। हां , घर जमाई बनकर नहीं, बल्कि इसे अपना घर समझकर
उसकी यह बात सुन सुरेश जी का रोम- रोम प्रफुल्लित हो उठा। रिश्तेदारों के पलट कर कुछ कहने से पहले उन्होंने उसकी नादानी कह ढकने की कोशिश की मगर मेहमानों ने भी सुरेश जी की आर्थिक स्थिति देखकर हामी भर ली । नीलिमा को भी आज अपने फैसले पर गर्व महसूस हो रहा था ।
सचमुच,” बेटी तो बेटी ही होती है” इतने में माता-पिता की आंखों से खुशी आंसू झर- झर झरने लगे । इसको किसी रिश्ते से नहीं तोला जा सकता।
” बेटी अनमोल है ,”
“परिवार को जोड़ने वाली वह डोर है,”
” अंधेरे में देने वाली वह उजाला है ,”
“यह दुनिया की आंखों का चांद सितारा है।”
— डोली शाह