अकेलापन: एक असह्य वेदना
रमेश बहुत ही मेहनती एवं होनहार लड़का है। घर की आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण वह मजदूरी के साथ-साथ सुबह-सुबह लोगों के घरों में अखबार बांटने का कार्य भी करता है। एक कॉलोनी जहाँ पर वह प्रतिदिन अखबार बांटने जाता था उसी कॉलानी में उससे अखबार लेने वालों में एक बहुत ही बुजुर्ग व्यक्ति दिनदयालजी शर्मा भी उसके ग्राहक थे।
रोजाना की तरह रमेश सुबह सुबह अखबार देने के लिए शर्मा जी घर पर पहुँचा। थैले में से अखबार निकाल कर उसने उनके घर के बाहर लगे लेटर बॉक्स में अखबार डालना चाहा। मगर वह सफल नहीं हुआ। फिर उसने मुख्य गेट के नीचे से सरका कर अखबार अन्दर डालना चाहा मगर वहाँ भी पर्याप्त जगह नहीं थी।
रमेश उस दिन बहुत जल्दी में था। एक बार तो उसने सोचा की यही गेट के बाहर फेंक कर चला जाता हूँ। मगर आसपास घूम रहे आवारा पशुओं के कारण वह ऐसा भी नहीं कर सका।
इसी कशमकश में उसने शर्माजी के घर का दरवाजा खटखटाया। डोर बेल के सिविच को दबाया। कुछ देर के बाद शर्माजी ने दरवाजा खोला। उनको देखते ही रमेश ने उनसे कहा कि- ‘‘अंकल! आपका मैल बॉक्स या तो भर गया है या खराब है। अखबार उसके अन्दर जा ही नहीं रहा है।
शर्माजी ने मुस्कुराकर उससे कहा कि- ‘‘ऐसा मैंने जानबूझकर किया है।’’
रमेश लगभग चौकते हुए बोला- ‘‘तो क्या अंकल! आप अखबार लेना बंद करना चाहते?’’
शर्मा जी दोबारा मुस्कुराते हुए बोले- ‘‘नहीं-नहीं, अखबार बंद नहीं करना है। अखबार मुझे तुम रोज दो, लेकिन मैलबॉक्स में नहीं, घर की घण्टी बजाकर या दरवाजा खटखटाकर।’’
रमेश ने कहा- ‘‘अंकल! इससे तो हम दोनों को असुविधा होगी। मेरा समय भी खराब होगा। मैं सुबह-सुबह अखबार बाँटने के बाद दिहाड़ी पर जाता हूँ। यदि मैं इतना समय खराब करूँगा तो कैसे चलेगा?’’
शर्माजी ने बड़े ही विनम्र भाव से कहा- ‘‘बेटा, रोज-रोज ऐसा करने में तुम्हारे पाँच मिनिट खराब तो अवश्य होंगे। थोड़ा सा जल्दी करके ये पाँच मिनिट तुम निकाल लेना। और हाँ, तुम्हारे ये पाँच मिनिट भी मैं फ्री में नहीं लूँगा। इसके लिए भी मैं तुम्हें पैसों का भुगतान करूँगा। क्योंकि मैं जानता हूँ कि फ्री में तो आजकल अपने बच्चे भी वक्त नहीं देते। इसलिए दरवाजा खटखटाकर अखबार देने के मैं तुम्हें हर महीने 1000/- रुपये अलग से दूँगा।’’
रमेश शर्माजी के मुँह की तरफ ऐसे देख रहा था कि जैसे उम्र के साथ उन्होंने अपने दिमाग का संतुलन भी खो दिया हो। उसने बड़े ही आश्चर्य से उनसे पूछा- ‘‘ऐसा क्यों अंकल?’’
शर्माजी ने उसके अन्तसः के भावों को समझते हुए उससे कहा कि-‘‘मेरे दो बेटे हैं। उन दोनों ने मुम्बई में अपने घर बनाकर अपनी-अपनी गृहस्थी वही बसा ली है। वे न तो मुझे अपने साथ रखते है और न मेरे साथ रहने को तैयार है। पिछले ही महीने मेरी पत्नी का स्वर्गवास हो जाने से अब इस घर में मैं अकेला ही रहता हूँ।’’ ऐसा कहते हुए शर्माजी की आँखों में आँसु आ गये।
शर्माजी ने अपनी आँखों में आए आँसुओं को पोछते हुए विनती भरे स्वर में फिर उससे कहा कि- ‘‘कभी ऐसा दिन आए कि जब तुम्हारे दरवाजा खटखटाने पर भी मैं यदि कोई प्रतिक्रिया न दूँ, दरवाजा न खोलूँ तो तुम तुरन्त पुलिस को फोन कर देना। और हाँ, एक बात और इस पर्ची में मेरे दोनों बेटों के फोन नम्बर है, उन्हें भी फोन कर देना। ताकि अंत समय के पश्चात् मेरी देह का अन्तिम संस्कार हो जाए।’’
रमेश ने उनकी इस पीड़ा को समझते हुए बड़े ही विनम्र भाव से उनसे कहा- ‘‘इस छोटे से कार्य के लिए मैं आपसे अलग से कोई पैसे नहीं लूँगा। कल से आपको अखबार देने के लिए मैं दस मिनिट पहले आऊँगा। हम दोनों यहीं पर खड़े होकर हर रोज सुख-दुःख की दो-चार बातें भी करेंगे। लेकिन, पहले आप मेरे एक सवाल का जवाब दो कि आपको लगता है क्या आपके देहांत की खबर सुनकर आपके बेटे आएँगे?’’
उसने पुनः कहा- ‘‘अपने जीवित पिता के लिए जब उनके पास वक्त नहीं है तो मरने के बाद उनके पास वक्त कहाँ से आएगा?’’
शर्माजी ने मुस्कुराकर उससे कहा- ‘‘इस घर को देख रहे हो तुम। छोटे शहर में होते हुए तो भी आज ये करोड़ों का है। मेरे बेटे मेरे लिए न सही इस घर को बेचने के लिए तो अवश्य दौड़े-दौड़े आएँगे।’’ इतना कहकर शर्माजी अखबार लेकर अन्दर चले गए। रमेश उन्हें लड़खड़ाते हुए कदमों से जाते हुए देखता रह गया।
आपको क्या लगता है कि यह सिर्फ एक कहानी है। नहीं, यह आज के समाज का एक कड़वा सच है। यदि हम हमारे कीमती समय में से कुछ समय निकाल कर ढूंढने निकले तो क्या पता शायद हमारे घर में अथवा समाज में शर्माजी जैसे कई पीड़ित किरदार हमें नजर आ जायेंगे। जो वृद्धावस्था में अकेलेपन के कारण एक अभिशापित जीवन जी रहे हैं। इस कारण वे अपने ही बच्चों से अक्सर पीड़ित एवं तिरस्कारित होते रहते हैं। आपसे मैं सिर्फ इतना ही जानना चाहता हूँ कि क्या वाकई में हमारा जमीर इतना मर गया है? क्या पैसा ही आज का भगवान हो गया है? क्या बचपन में मिले हुए संस्कारों का कोई मौल नहीं? अरे, यह भगवान श्री राम का भारत देश है। जिन्होंने मात्र अपने पिता के दिए हुए आदेश एवं माता कैकयी से किये हुए वादे का धर्म निभाते हुए चौदह वर्ष वनवास में काटे। इस देश का इतिहास सदैव गौरवमयी रहा है।
फिर आज ये कैसा दौर आ गया है? ये कैसी संस्कृति उत्पन्न हो रही है इस धरा पर? ये कैसे संस्कार हैं? क्या आपको नहीं लगता कि माता-पिता ही हमारे भगवान है? जिस माँ ने नौ महीने तक असह्य वेदना को झेलते हुए अपने पेट में रखकर एवं पिता ने बचपन में अपनी पीठ पर बिठाकर हमें यह दुनिया दिखाई है। हमें अच्छे संस्कार दिए है। हमारी प्रत्येक इच्छा को किसी-न-किसी तरह पूर्ण किया है और इस काबिल बनाया कि समाज में आज हम अपना सिर ऊँचा करके अच्छे से जीवन यापन कर सके। हमारी अच्छे से परवरिश करने में उन्होंने कभी भी छुट्टी नहीं ली और न कभी किसी भी जिम्मेदारी से मुँह मोड़ा। क्या ऐसा करके उन्होंने कोई गुनाह किया है? सिर्फ इसलिए कि आज उनके वृद्धावस्था में हम उन्हें अकेले उनके हाल पर छोड़कर अपनी नई दुनिया बसा ले।
मित्रो! अकेलापन तो वैसे भी एक अभिशाप है। यह एक ऐसा दीमक है जो भीतर ही भीतर प्राणी को खोखला करता रहता है। हमें एक बात कभी भी नहीं भूलनी चाहिए कि जो तिरस्कार आज हम अपने माता-पिता का उनके वृद्धावस्था में कर रहे है क्या पता शायद कल हमारे बच्चे भी हमें इसी अकेलेपन के अंधे कुएँ में धकेल कर अपनी एक नई दुनिया बसा लें।
मेरा सभी से सिर्फ इतना ही निवेदन है कि एक बार अपने घर में या आसपास नजर डालकर अवश्य देखें कि इस कहानी के बुजुर्ग किरदार की तरह कोई और बुजुर्ग वृद्धावस्था में अकेलेपन के कारण लड़खड़ाते कदम तो नहीं चल रहा है। यह एक चिन्तनीय विषय है। इस पर हम सबको अर्न्तहृदय से एक बार चिन्तन अवश्य करना चाहिए।
— राजीव नेपालिया (माथुर)