भक्तिकालीन संत काव्य की प्रासंगिकता
उत्पन्ना द्राविडेचाहं कर्नाटे वृद्धिमागता।
स्थिता किन्चिन्महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्णामता।।
अर्थात् “श्रीमद्भागवत” में व्यास महर्षि ने भक्ति के मुख से यह कहलवाया है कि मैं द्रविड़ प्रदेश में उत्पन्न हुई, कर्नाटक में बड़ी हुई; महाराष्ट्र में कुछ दिन निवास करने के पश्चात गुजरात में वृध्दा हुई। भक्ति आन्दोलन के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो “श्रीमद्भागवत” की रचना से पहले ही दक्षिण भारत में भक्ति धारा प्रवाहित थी, जो कालान्तर में भारत में फ़ैल गई। दक्षिण के आलवार और नायनर भक्तों का प्रभाव सम्पूर्ण भक्ति साहित्य पर पड़ा।
हिंदी का भक्ति साहित्य यह प्रमाणित करता है कि भक्ति अपने कथन के डेढ़ हजार साल बाद पूरे युवा उत्साह के साथ उत्तर भारत में आई और उसने अपने भव्य भावधारा से उसने जन सामान्य को मन्त्र-मुग्ध कर लिया। भक्ति इस निर्मल रसमयी धारा ने हिंदी भाषी प्रदेशों को आप्लावित किया और गौडीय-वैष्णव संतों द्वारा असम के संत शंकरदेव और उनके शिष्य माधवदेव को भावमग्न करती हुई सुदूर पूर्वोत्तर भारत को अपने रंग में रंग लिया। सम्पूर्ण भारत-भूमि को एकता के सूत्र में पिरोने के का एवं “वसुधैव कुटुम्बकम्” का उत्कृष्ट उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ है। आज जाति, धर्म, सम्प्रदाय, भाषा-बोली आदि के नाम पर खण्ड-खण्ड होता समाज, क्षेत्र एवं विश्व के समक्ष संत-काव्य एक आदर्श प्रस्तुत करता है , जहाँ “जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजै ज्ञान” मान्य है। मानवता सबसे बड़ा धर्म है। जहाँ सब समान है तथा जाति-धर्म आदि के बंधनों से मुक्त है।
मोची का कार्य करने वाले जाति के चमार, संत रैदास के अंग-अंग में ईश भक्ति की सुगंध समाई हुई है और उनके ईष्ट ‘गरीब निवाज़” है; वह छोटे-बड़े में भेद नहीं करता है अपितु सच्चे साधक का सम्मान करता है, चाहे वह किसी भी जाति का हो। भक्त रैदास कहते हैं –
“ऐसी लाल तुझ बिनु कउन करै।
गरीब निवाजु गुसईआ मेरा माथै छत्रु धरै।।
जाकी छोति जगत कउ लागै ता पर तुहीं ढरै।
नीचहु ऊच करै मेरा गोबिंदु काहू ते न डरै।।”
ऐसे काशी वासी प्रभु के सच्चे भक्त रैदास की शिष्या मेवाड़ की महारानी मीराबाई थीं। स्थूल रूप से देखें तो भौगोलिक एवं सामाजिक रूप से दोनों में जमीन-आसमान का अंतर है परन्तु भक्ति-भाव के धरातल पर दोनों में समरसता है। बीरबल के नौ रत्नों में से एक अब्दुल रहीम खानखाना जीवन अंतिम काल में कृष्ण के प्रति समर्पित हो गए थे उसी प्रकार कृष्ण भक्त संत रसखान की “मानुस हों तो वही रसखानि, बस्यौ बृज गोकुल गाँव के ग्वालन” की गुहार लगाने वाले कृष्ण भक्ति धर्म आदि की सीमाओं से परे है। जाति के जुलाहा संत कबीर की बाणी से कौन परिचित न होगा। उन्होंने हिन्दू हो या मुसलमान, ऊँची या नीची जाति का हो, समाज में व्याप्त कुप्रथाओं एवं विचारधाराओं पर कुठाराघात कर एक आदर्श समाज की स्थापना पर बल दिया है –
काँकर पाथरि जोरि कै, मस्जिद लई चुनाय।
ता चढ़ी मुल्ला बांग दै, का बहिरा हुआ खुदाय।।
x x x
जपमाला छापा तिलक, सरै न एकौ काम।
मन काँचे नाचे वृथा, साँचे राँचे राम।।
ध्यातव्य है कि संत कवियों ने निर्गुणवाद के आधार पर राम और रहीम की एकता स्थापित करके एवं हिन्दू और मुसलमानों की रुढ़ियों का विरोध करके दोनों जातियों में मैत्री सम्बन्ध उत्पन्न कराने का प्रयास किया। सूफी संतों ने मुसलमान होकर भारतीय प्रेम गाथाओं का आश्रय लेकर मानव ह्रदय को स्पर्श करने वाली रचनाओं द्वारा प्रेम का सन्देश दिया, जिसकी आज के घृणा, ईर्ष्या, हिंसा तथा अहं के वातावरण में अत्यधिक आवश्यकता है।
हिंदी के भक्त कवियों का योगदान जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में रहा है। भक्ति साहित्य का सामाजिक, संस्कृति और साहित्यिक दृष्टि से विशेष योगदान है। वारकरी सम्प्रदाय के संत नामदेव ने गाँव-गाँव घूमकर समाज में व्याप्त कुरीतियों और अंधविश्वास को दूर किया। उन्होंने जाति-भेद और छुआछूत के भेदभाव को समाज से मिटने का प्रयास किया। उन्होंने ‘चोखोबा’ नामक अछूत का स्मारक बनवाया। वे किसी पूजा-उपासना के विरुध्द नहीं थे, वे उस देवता को मानते थे, जो सबके मन-मंदिर में रहता है –
हिन्दू पूजै देवरा, मुसलामाणु मसीद।
नामे सोई सेविआ, यह देहुरा न मसीद।।
भक्ति साहित्य द्वारा शोषित, पीड़ितों को ऊपर लाने का प्रयास किया गया है जबकि इक्कसवीं सदी में शिक्षा के प्रचार-प्रसार के बाद भी समाज में जातिगत भेदभाव पूरी तरह से दूर नहीं हुआ है। यहाँ तक की आधुनिकता के इस युग में जातिगत, धर्मगत राजनीति अपनी जड़ें जमाती जा रहीं हैं। राज्यों में भेदाभेद, साम्प्रदायिकता, भारत-पाकिस्तान सम्बन्ध आदि समस्याएँ मध्यकाल से चली आ रही है केवल इसका स्वरूप बदल गया है। संतों ने मध्यम मार्ग अपनाने का सुझाव दिया है। दादू दयाल के अनुसार हिन्दू और मुसलमान दोनों में ही परमात्मा का निवास है। वे कहते हैं कि –
दादू करणी हिन्दू तुरक की, अपनी अपनी ठौर।
दुहूँ बिचि मारग साध की, यह संतों की रह और।।
आधुनिकता के युग में प्रतियोगिता के दौड़ में निरंतर गिरते नैतिक मूल्यों की बाजारवादी संस्कृति में संत साहित्य भारतीय संस्कृति एवं मानवीय मूल्यों की स्थापना करता है। भारतीय संस्कृति की पृष्ठभूमि में मानव-मात्र की कल्याण निहित है, जो “बहुजनहिताय” और “बहुजनसुखाय” की दृष्टि से होते थे। तभी तो वेदव्यास के “परोपकार: पुण्याय: पापाय परपीडनम्” और भर्तृहरि “…परोपकाराय सताम् विभूतय:” से होते हुए भक्तकालीन संत काव्य तक पहुँची। गोस्वामी तुलसीदास ने धर्म-अधर्म की व्याख्या करते हुए परोपकार को सर्वश्रेष्ठ बताते हुए कहते हैं –
“परहित सरिस धरम नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।”
अर्थात् परोपकार के सामान कोई दूसरा धर्म नहीं है। इस जगत में ‘स्व’ और ‘पर’ का विभेद ही सांसारिक माया है। हम अधिकांश कार्य स्वयं के लिए करते हैं परन्तु ‘स्व’ की संकुचित सीमा से निकल कर ‘पर’ के लिए त्याग करना ही सच्ची मानवता है। यही धर्म है, यही पूण्य तथा आत्मिक शांति भी है। रहीम ने भी इस सत्य को स्वीकार किया है –
“यों रहीम सुख होत है उपकारी के संग।
बाँटन वारे के लगे जों मेंहदी को रंग।।”
भक्तकालीन सभी संतों ने सत्संग पर बल दिया है। हम जैसी संगत करते हैं वैसा प्रभाव हमारी सोच एवं कार्य-कलाप में पड़ता है। सतसंगत से नकारात्मकता भी सकारात्मकता में परिवर्तित हो जाती है और उसके सारे दोष समाप्त हो जाते हैं जैसे परस पत्थर के स्पर्श से लोहा स्वर्ण में परिवर्तित हो जाता है। उन्होंने लिखा है –
“सठ सुधरहिं सत्संगति पाई, पारस परस कुधातु सुहाई।”
तंत्रजाल, मोबाईल आदि के युग में अपनी ही दुनिया में लीन व्यक्ति में धैर्य की कमी, निराशा, आत्महत्या एवं हिंसा आदि घटनाएँ आए दिन घटती रहती हैं ऐसे में सत्संगति से मनुष्य में धैर्य, साहस, आशा और सहानुभूति का संचार होता है। वह इतना विवेकपूर्ण हो जाता है कि विपरीत से विपरीत परिस्थितियों का सामना कर लेता है और समाज में उसकी प्रतिष्ठा में वृध्दि होती है। संत रहीमदास कहते हैं –
“कदली सीप भुजंग मुख स्वाति एक गुण तीन।
जैसी संगति बैठिए, तैसोई फल दीन।।”
अर्थात् स्वाति नक्षत्र की बूँद केले में मिल कर कपूर, सीप में मोती और साँप में विष बन जाती है। जैसी संगति होती है, वैसा ही फल मिलता है। संतों ने इस संसार को कर्म प्रधान कहा है और आलस्य का त्याग कर सदैव कर्म करने की प्रेरणा दिया है। गोस्वामी तुलसीदास कर्म को ही सफलता का मूल मन्त्र मानते हुए कहते हैं –
“कर्म प्रधान विश्व रचि राखा। जो जस करहि सो फल चाखा।।
सकल पदारथ हैं जग मांही। कर्महीन नर पावत नाहीं।।”
परिश्रम से मानव में स्वावलंबन की भावना का उदय होता है, इससे वह अपने और अपने देश का कल्याण कर सकता है। यहाँ तक कि वह अपने भाग्य की रेखाओं को बदल सकता है। कर्मठ नागरिक देश को उन्नति की शिखर पर ले जाता है। उदाहरण स्वरुप देश में विकसित कोरोना टीका हमारे देश के वैज्ञानिकों के रात-दिन के अथक परिश्रम का परिणाम है। इसके सफल प्रयोग के कारण पूरे विश्व में भारत की प्रशंसा हो रही है। इसके अतिरिक्त राष्ट्र की एकता एवं स्वतंत्रता का महत्व का सन्देश दिया है। तुलसीदास कहते हैं –
“पराधीन सपनेहु सुख नाँहीं। करि विचारि देखहु मन माहीं।।”
भक्तकालीन साहित्य रूपी कलश लोकमंगल की भावना से भरा गया था अत: यह जन-जन तक के ह्रदय तक पहुँचा। यहाँ राम मर्यादा पुरुषोत्तम और लोक रक्षक है तो कृष्ण लोक रंजक और जीवन-दर्शन के संदेशवाहक। इसमें आदर्श परिवार, समाज एवं राष्ट्र की स्थापना की गई है। नैतिक एवं सामाजिक आदर्श स्थापित किए गए हैं, जो आज के संदर्भ में अति प्रासंगिक हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने मुखिया या राजा के लिए जो आदर्श प्रस्तुत किया है, वह अनुकरणीय है – “मुखिया मुख सो चाहिए, खान-पान को एक।
पाले पोसै सकल अंग, तुलसी सहित विवेक।।”
अर्थात् मुखिया को मुँह के समान होना चाहिए, जो खाता-पीता है और शरीर के सब अंगों को समान रूप से पालन-पोषण करता है उसी प्रकार मुखिया को समाज के सभी प्रजाजनों की देखभाल बिना भेदभाव के करना चाहिए। यह आज की स्वार्थपरक राजनीति एवं नेतृत्त्व हेतु अत्यंत प्रासंगिक है। पिता का पुत्र के प्रति, पुत्र का माता-पिता के प्रति, भाई का भाई के प्रति, राजा का प्रजा के प्रति, सेवक का स्वामी के प्रति, शिष्य का गुरु के प्रति, पत्नी का पति कर्तव्यो आदि की व्याख्या संत काव्य में बहुत सहजता से मिलती है। सम्पूर्ण भक्तिकालीन साहित्य भक्ति, नीति, दर्शन, धर्म-कला का अपूर्व संगम है। संत कवियों के नीति सम्बन्धी दोहे आम लोगों के लिए जीवन-शैली के समान हैं, जिसका अनुसरण कर मनुष्य अपने जीवन को सफल बना सकता है। यहाँ तक ईश्वर को पूर्णरूपेण समर्पित रहीम गृहस्थ को भविष्य के लिए बचत करने की सलाह देते हुए कहते हैं –
“रहिमन निज सम्पति बिना, कोउ न बिपति सहाय।
बिनु पानी ज्यों जलज को, नहिं रवि सके बचाय।।”
इन्होंने मधुर और सत्य वाणी को मानवोपयोगी और समाजोपयोगी बताया है। निराश व्यक्ति को उत्साहित करने का और कर्तव्यच्युत व्यक्ति को सन्मार्ग में लाने का साधन वाणी ही है। इसके बल पर ही बड़े-बड़े युध्द एवं चुनाव आदि जीते जाते हैं। दूरदर्शी संत कबीर कहते हैं –
“ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय।।”
भक्तकालीन काव्य भारतीय इतिहास, संस्कृति, लोक एवं परम्परा का संरक्षक है। लोक संग्रह की भावना को प्रमुखता दी गई है। भारत में प्रचलित लोककथाओं एवं कथाओं, लोक गीतों का भंडार इसमें समाया हुआ है। कवि मालिक मुहम्मद जायसी ने सिंहलदेश की राजकुमारी पद्मावती और राजा रतनसेन की प्रेम कथा को अपने ग्रन्थ “पद्मावत” का वर्णविषय बनाया और हीरामन तोते के माध्यम से दोनों का मिलन कराया। प्रेम को सर्वोपरि मान भौतिक पर्म के साथ-साथ आध्यात्मिक प्रेम का समन्वय किया है, –
“तन चितउर मन राजा कीन्हा, हिय सिंघल बुध्दि पद्मिनि चीन्हा।
गुरु सुआ जेई पन्थ दिखावा, बिन गुरु जगत को निर्गुण पावा।।”
कृष्ण की बाललीलाओं का वर्णन करते हुए सूरदास ने भारतीय संस्कारों एवं रीति-रिवाज का सुन्दर समावेश किया है। तुलसी दास ने भक्ति के साथ शील, मर्यादा, आदि का बहुत सुन्दर समायोजन किया है।
संतों ने निज भाषा की उन्नति एवं विकास का सर्वोत्तम उदहारण प्रस्तुत किया है। ऐसे समय में जब विश्व की कई बोलियों और भाषाओँ के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है और बाजारवाद की भाषा हिंदी के स्वरूप को भी चुनौती दे रही है तो बोलियों की क्या बिसात ? भारत में भाषाओँ और बोलियों का अकूत भण्डार है, जो संरक्षण एवं व्यवहार के अभाव में अतीत बनती जा रही हैं। इसका समाधान भक्तकालीन संत काव्य में विद्यमान है। इस काल में सभी भक्त कवियों ने स्थानीय बोलियों में समृद्धिशाली एवं कालजयी रचनाएँ की। गोस्वामी तुलसीदास ने अवधी एवं बृज में, सूरदास ने बृज में, जायसी ने अवधी में, मीराबाई ने मेवाड़ी में, नानक ने पंजाबी में तथा फारसी, देशज आदि शब्दों का प्रयोग कर भाषा को समृद्ध किया। उदाहरणस्वरूप संत नामदेव की निम्न पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं –
“तेरी तेरी गति तूं ही जानै। अल्प जीव गति कहा बषनै ।।
जैसा तूं कहिये तैसा तूं नाहीं। जैसा तूं है तैसा आछि गुसाई।।”
निष्कर्षत: भक्तिकालीन संत साहित्य हमें पुनर्जागरण का सन्देश देता है। मानवीय मूल्यों के विकास पर बल देता है। युवा पीढ़ियों को अपने कर्तव्यों की ओर प्रेरित करता है। यह सन्देश देता है कि हम हिंसा, धैर्य न खोकर संयम के साथ रहें उससे लोकमंगल की भावना फैलेगी। इससे हमारी संस्कृति का विकास होगा। भक्तिकालीन काव्य में निहित सामाजिक मूल्य आज भी प्रासंगिक हैं।
सहायक ग्रन्थ –
१. कबीर ग्रन्थावली
२. पद्मावत, जायसी
३. भक्तिकालीन काव्य में मानवीय मूल्य, डा हणमंतराव पाटील, समता प्रकाशन, कानपुर
४. हिंदी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल।
— डॉ. अनीता पंडा