आँगन की दीवारों से (ग़ज़ल संग्रह)
समीक्ष्य कृति: आँगन की दीवारों से ( ग़ज़ल संग्रह)
कवि: नंदी लाल ‘निराश’
प्रकाशक: निष्ठा प्रकाशन,गाज़ियाबाद ( उ प्र)
प्रकाशन वर्ष: 2020 ( प्रथम संस्करण)
पृष्ठ: 176
मूल्य: ₹ 220
‘आँगन की दीवारों से’ नंदी लाल ‘निराश’ जी का तीसरा ग़ज़ल संग्रह है। इस कृति में 153 ग़ज़लें हैं। इस कृति की भूमिका लिखी है डाॅ सुरेशकुमार शुक्ल ‘संदेश’ जी ने। भूमिका के साथ मधुकर शैदाई ,रमेश पाण्डेय ‘शिखर शलभ’, संजीव जायसवाल ‘संजय’ तथा सुरेश सौरभ जी के शुभ कामना संदेश हैं।सीतापुर जनपद के मूल निवासी ‘निराश’ जी की कर्मभूमि गोला गोकर्णनाथ ,खीरी लखीमपुर रही है। खीरी लखीमपुर ऐसा स्थान है, जो साहित्यिक दृष्टि से अत्यंत उर्वर है। व्यक्ति के अंदर यदि प्रतिभा हो और उसे उपयुक्त वातावरण मिले तो कार्य के प्रति ऊर्जा और लगन से स्वयमेव लबरेज हो जाता है।
नंदी लाल ‘निराश’ जी एक उम्दा ग़ज़लकार होने के साथ-साथ एक श्रेष्ठ कवि हैं।जितनी शिद्दत के साथ वे ग़ज़ल कहते हैं उतनी ही कुशलता के साथ वे पारंपरिक छंदबद्ध सृजन करते हैं।उनकी रचनाधर्मिता हिंदी और अवधी में एक समान है। यही एक श्रेष्ठ साहित्यकार की पहचान होती है कि वह अपने आपको सीमाओं से परे ले जाता है। नंदीलाल ‘निराश’ जी एक ऐसे ही श्रेष्ठ रचनाकार हैं।
एक समय था जब ग़ज़ल महबूबा से गुफ़्तगू करती थी। धीरे-धीरे समय के साथ ग़ज़ल की प्रकृति में बदलाव हुआ और वह इश्क तथा हुस्न से आज़ाद हुई और जनसाधारण से भी बात करने लगी। आज की ग़ज़ल केवल महबूबा की जुल्फों और रुखसारों की बात नहीं करती वरन मजलूमों के दर्द से कराहती भी है।
‘आँगन की दीवारों से’ पर दृष्टिपात करने से ‘निराश’ जी की ग़ज़ल की समझ और अभिव्यक्ति कौशल का अनायास ही पता चल जाता है।कवि की पहली ग़ज़ल माँ को समर्पित है। माँ जिसके कदमों के तले जन्नत मानी जाती है, माँ जिसके कारण इस दुनिया में हमारा अस्तित्व है।ग़ज़लगो निराश जी ने माँ की महिमा का बखान करते हुए लिखा है-
लाखों संकट आते लेकिन माँ की दुआ बचा लेती,
धन्य-धन्य वे लोग जहाँ में जिनकी जीवित होती माँ। (पृष्ठ-23)
सारी ज़िंदगी हाथ-पैर मारने बावजूद श्रमिक और मज़दूर की स्थिति में कोई सुधार नहीं होता। धूप,शीत,वर्षा सब कुछ सहकर भी जो अपनी किस्मत को चमकाने में लगा रहता है, दुनिया से उसे उपेक्षा ही मिलती है। दूसरी तरफ ऊँची-ऊँची हवेलियों में रहने वाले लोग हैं जो ऐशो-आराम की ज़िंदगी गुज़र-बसर करते हैं फिर भी समस्याओं का रोना रोते रहते हैं।
कोठियों में दर्द केवल झूठ का ही है,
है दुखी तो सिर्फ दुनिया का कमेरा है।
वक्त की टूटी फटी सब जोड़ देता है,
घूमता दर दर लिये गठरी ठठेरा है। ( पृष्ठ-25)
आज की दुनिया बड़ी विचित्र है। कौन अपना है और कौन पराया; पता ही नहीं चलता। ऐसा लगता है कि इंसानियत दम तोड़ चुकी है। हर कोई मौके का फायदा उठाने के लिए तैयार खड़ा दिखाई देता है। मुसीबत में फँसे व्यक्ति की चिंता किसी को नहीं होती।इसलिए किसी से उम्मीद करना बेकार है। शाइर की बेबाकी का नमूना देखिए-
थी बड़ी उम्मीद अपने ही बचा लेंगे मगर,
छोड़कर हमको हमारे हाल पर जाने लगे।
जो मिले दोनों ने अपनी बात दो तरफा कही,
एक समझाने लगे तो एक बहकाने लगे। (पृष्ठ-27)
जहाँ पर न्याय-व्यवस्था अपने आपको नीलाम करने पर तुली हो, वहाँ जुल्म का शिकार व्यक्ति न्याय तलाश करने कहाँ जाए। सब ओर से हताश व्यक्ति को अंततः ईश्वर से उम्मीद बचती है। निराश जी का यह शे’र पाठक को ईश्वर के प्रति आस्थावान बने रहने का संदेश देता है।
एक डर शेष है तो उसी का, न्याय उसका ही सच्चा यहाँ है,
फैसले आज के बिक रहे हैं, अब अदालत बदलने लगी है।। (पृष्ठ-45)
समाज में बढ़ते अन्याय और अत्याचार के कारण घर-परिवार ही नष्ट नहीं होते वरन माँ-बाप की हत्या के बाद अनाथ होते बच्चे समाज के लिए चिंता का एक कारण है।दूसरी विकृति राजनीति की जिसमें चुनाव जीतने के बाद पाँच सालों तक अपने क्षेत्र की समस्याओं के समाधान के लिए कोई कदम नहीं उठाते किंतु पाँच साल बाद जब चुनाव आते हैं तो जाति-धर्म का कार्ड खेलते हैं और लोगों को तरह-तरह का प्रलोभन देकर वोट हासिल कर बार-बार विधायक बन जाते हैं।
कत्ल कर डाला गया माँ बाप का कल रात को,
दुधमुँहा दो साल का जो बेसहारा हो गया।
—
पाँच सालों तक न आयी याद अपने गाँव की,
भाग्य कुछ ऐसा विधायक वह दुबारा हो गया।
सत्ता में बैठे हुए लोग भूख और बेकारी का स्थायी समाधान करने के बजाय मुफ़्त की रेवड़ियाँ बाँटते हैं। लोगों को आलसी और निकम्मेपन के दलदल में ढकेल देते हैं। मुफ्त का अनाज न तो लोगों की भूख मिटा सकता है और न बेकारी को कम कर सकता है। आज की जरूरत लोगों के हाथों को काम देने की है।
दे सको तो ज़िन्दगी भर के लिए दे दो उसे,
एक रोटी से किसी का कुछ भला होता नहीं। (पृष्ठ-93)
सत्ता और पुलिस के गठजोड़ से समाज से अपराध पाँव पसारता रहता है।सत्ता में बैठे हुए लोग बेफिक्र रहते हैं और कानून-व्यवस्था की जिम्मेदारी जिनके कंधों पर होती है, वे सोते रहते हैं। ऐसे में दुखी और पीड़ित गुहार लगाने जाए तो किसके पास?
सेंधमारी हो गई अस्मत किसी की लुट गई,
ठीक थाने के बराबर में पुलिस सोती रही।( पृष्ठ-98)
लोग तभी तक आस-पास नज़र आते हैं जब तक उनका स्वार्थ सिद्ध नहीं होता। काम निकल जाने के बाद व्यक्ति पहचानने से भी इन्कार कर देता है।निराश जी का स्वार्थी दोस्तों को ध्यान में रखकर लिखा गया शेर काबिल-ए-गौर है।
ये तरीका आज का है यह सलीका आज का,
काम जिसका हो गया फिर वह नजर होता नहीं।
—
भूल जाओ दोस्तों को जो तुम्हारे साथ थे,
साँप हैं साँपों का कोई एक घर होता नहीं। ( पृष्ठ-107)
समाज में बढ़ती नशाखोरी की प्रवृत्ति चिंता का विषय है। मात्र वयस्क ही नहीं आज तो कम उम्र के बच्चे भी इस लत का शिकार हो रहे हैं। यह स्थिति किसी भी सभ्य एवं विकासशील समाज के लिए नहीं कही जा सकती इसलिए निराश जी की चिंता स्वाभाविक है।
जो पीकर साँझ को करता मुआ अक्सर तमाशा है।
अभी तो उम्र ही क्या है अभी बच्चा ज़रा सा है।। (पृष्ठ-118)
गाँव हो या शहर; पढ़ा-लिखा हो या अनपढ़ सभी को भ्रष्टाचार ने अपनी गिरफ्त में ले लिया है।ग्राम पंचायत का प्रधानी का चुनाव लोग सेवा-भाव के लिए नहीं लड़ते वरन गाँव के विकास के लिए आए सरकारी योजनाओं के पैसों को हड़पने के लिए लड़ते हैं।बड़े-बड़े पक्के घर बनाते हैं ,गाड़ियों से घूमते हैं।
नरेगा लूटकर घर में भरा आनाज बोरों में,
सनी है खून से मजदूर के परधान की रोटी।( पृष्ठ-157)
मंचों पर प्रायः ऐसी घटनाएँ होती हैं जब कवि या शायर किसी दूसरे की रचना अपने नाम से पढ़ता है।कई बार तो ऐसा भी होता है कि लोग दूसरे की रचना अपने नाम से प्रकाशित करवा लेते हैं।निराश जी को ऐसे लोगों से सख्त नफरत है। होनी भी चाहिए क्योंकि यह निंदनीय कृत्य है।
प्यार बहुत कविता से मुझको नफरत कविता चोरों से,
इससे ज्यादा और लिखूँ क्या आखिर अपने बारे में। (पृष्ठ-174)
संग्रह की प्रत्येक ग़ज़ल संवेदनाओं ओत-प्रोत है और एक सार्थक संदेश देती है। निराश ने अपने साहित्यिक दायित्व का निर्वहन बखूबी किया है। ग़ज़लों का कथ्य और भाषा आमजन से जुड़े हैं,इसलिए पाठक अपने आपको इनसे आसानी से जुड़ जाता है। बेबाकी से शे’रों के माध्यम से अपनी बात कहना ग़ज़लगो की एक विशेषता होती है और निराश जी इस कला में निष्णात हैं।इस श्रेष्ठ ग़ज़ल कृति के प्रणयन के लिए निराश जी को हार्दिक बधाई और अशेष शुभकामनाएँ!!
समीक्षक,
डाॅ बिपिन पाण्डेय
रुड़की (हरिद्वार)