कहानी

बिखर गईं उम्मीदें

दीपावली करीब आ रही थी। राघव और उसके बच्चे घर की साफ सफाई में व्यस्त थे। राघव की पत्नी रीता भी उनका हाथ बंटा रही थी। एक दिन राघव ने रीता से कहा- सुनो जी! क्यों न इस बार हम सब छोटे के पास दीवाली मनाने चलें।छोटे और उसके बच्चों से मिलना भी हो जाएगा और शहर में दीवाली की रौनक भी देख लेंगे।

     देख लो !पता नहीं उन्हें हमारा आना शायद अच्छा न लगे। पत्नी ने चिंता से कहा।

      व्यर्थ इतना क्यों सोचती हो। वो मेरा बेटा समान भाई है, उसे तो अच्छा ही लगेगा, जब वे हमें त्योहार पर अपने सामने देखेंगे और हम भी अचानक पहुँच कर उन्हें चकित कर देंगे। राघव अपनी पत्नी की चिंता को दूर करते हुए खुशी से कहा। 

         दोनों पति पत्नी (राघव-रीता)  तरह तरह के पकवान और घर का शुध्द देशी घी ले कर छोटे भाई के  पास दीपावली से एक दिन पूर्व ही शहर पहुंच गये।

    अचानक भैया भाभी और उनके बच्चों को सामने देख राघव का भाई राजन आश्चर्य से बोला, अरे भैया! न कोई सूचना,न कोई फोन और आप लोग यूँ अचानक! कैसे आना हुआ?

       अरे ! कैसे क्या हुआ, हमने सोचा इस बार दीपावली तुम्हारे साथ मना लें। शहर की रोशनी भी देख लेंगे।तुम्हारी भाभी जाने क्या क्या तुम लोगों के लिए लेकर आई है और हां देशी घी तेरे लिए लाया हूं। 

      बिना किसी औपचारिकता के राजन की पत्नी शशि बोल पड़ी, कोई नहीं खायेगा यहाँ आपकी लाई हुई पकवानें, हमारे बच्चों को तो आपके किसी भी पकवान में स्वाद ही नहीं मिलता। फिर हम लोग गांव की मिठाई तो कभी खाते ही नहीं। फिर इस तरह मुंह उठाकर चले आना मुझे अच्छा नहीं लगा। इतनी भी अक्ल आप दोनों को नहीं आई कि किसी के घर, वो त्योहार में यूं मुंह उठाए नहीं जा धमकते हैं। फिर हमारा छोटा सा घर है।

      संतराम ने जहर का घूंट पीते हुए राजन से कहा-कोई बात नहीं छोटे, हम वापस चले जाते हैं, तुम लोग परेशान मत हो।सारी गलती मेरी है ।तुम्हारी भाभी ही सही थी, मैं ही ग़लत था। 

        बीच में संतराम की  बीबी बोल पड़ी- क्यों अपना दिल दुखाते हो, समझ लेंगे किसी गैर को हमने मेहनत मजदूरी करके पाल पोस कर बड़ा किया, जब अपने हाथ पर खड़ा हो गया, तो अपनी औकात दिखाने लगा। भूल जाइए कि आपका कोई भाई भी है। चार अक्षर पढ़ लिया, शहर में नौकरी करने लगा तो शहरी रंग में रंग गया।

       दु:की मन से राघव ने सिर्फ हां कहा। 

फिर उसके पंद्रह वर्षीय बेटे ने अपने चाचा से कहा -चाचू! साफ साफ ये क्यों नहीं कहते कि आपको लगता है कि हम आपसे कुछ लेने आये हैं।तो भ्रम में मत रहिए। और एक बात जान लीजिए आगे आप लोग कुछ कहें, उससे पहले मैं आपको पता देता हूं, पापा आपसे रिश्ता रखें, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन आज और अभी से मेरा आप लोगों से कोई रिश्ता नहीं रहा। और हां जितना जल्दी हो सके घर आकर अपने हिस्से का घर, खेत देखकर अपना हिस्सा अपने कब्जे में कीजिए, फिर जो करना हो करिए। अब से आपके हिस्से की खेती भी हम नहीं करेंगे।

   राघव बीच में बोल उठा – ये तुम क्या कह रहे हो बेटा।

जवाब में रीता ने बेटे का समर्थन किया कि ठीक ही तो कह रहा है। क्या हम इनके नौकर हैं। अब हमें इनसे कोई रिश्ता नहीं रखना। अब हम एक पल भी यहां नहीं रुकेंगे आपको चलना है तो चलिए , नहीं तो मैं अपने बेटे का साथ वापस जा रही हूं। कहकर उसने बेटे का साथ पकड़ा और अपना बैग लेकर वापस चल दी।

      राघव ने दुख भरी नजरों से राजन और उसके बच्चों को देखा।     

      राजन कुछ बोल न सका, लेकिन उसकी पत्नी शशि ने बड़े ताव में कहा- बिल्कुल मत कीजिए। हम अपने हिस्से का खेत घर सब बेंच देगें।

    राघव अपने भाई को देखता रहा, उसकी आंखों में आंसू थे। जिसे पोंछते  हुए  वह वापस लौट पड़ा और सामने आ रहे रिक्शे पर अपनी पत्नी के साथ बैठकर स्टेशन की ओर प्रस्थान कर दिया।

       राघव या उसकी पत्नी शशि ने एक बार भी उन्हें रोकने की कोशिश भी नहीं की, शायद वे चाहते ही ऐसा थे कि भैया भाभी रुकें और दीपावली सब मिलकर मनाएं।

   आज राघव का भातृत्व भाव पूरी तरह शर्मिंदा महसूस कर रहा था। क्योंकि उसे सपने में भी उसे अपने भाई से इस तरह के व्यवहार की उम्मीद नहीं थी। 

*सुधीर श्रीवास्तव

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