अविस्मरणीय अनोखी भाई दूज
“दीदी, आज मेरे लिए क्या-क्या बनाया है?” सुबह-सुबह भाई का फोन आ गया.
“तुम्हारी पसंद के गुलाबजामुन और भाभी की पसंद के नारियल के लड्डू तो बनाए ही हैं, बाकी आके देखना भी और खाना भी!”
“आज तो हम नहीं ही आ पाएंगे!”
“क्यों क्या हो गया?”
“अरे भाई कुछ नहीं हुआ, आज आप लोगों को आना है गणेश जी के मंदिर में, दस बजे आ सकोगी क्या? अचानक वहां कुछ परिवारों के मिलन-समारोह का प्रोग्राम बन रहा है. और हां, गुलाबजामुन और लड्डू लाना मत भूलना. अच्छा रखता हूं” मुझे हां या ना कहने का मौका भी नहीं दिया उसने.
फिर क्या था! जल्दी-जल्दी तैयार होकर हम गणेश जी के मंदिर में पहुंच गए, वहां सात परिवारों की महफिल जमी हुई थी. चुटकुलों और ठहाकों से मंदिर की बगिया गूंज रही थी. फिर तो इतने भाई मिल गए टीका लगाने और मिठाई खाने-खिलाने को, कि वह अनोखी भाई दूज अविस्मरणीय हो गई.
— लीला तिवानी